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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६२३ एगिदिथावरायव के० एप्रियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम, ए त्रण प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध, वीश कोडाकोडी सागरोपमरूप सेना बंधाधिकारी आईसाणासुरुकोसं के नवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, ए त्रण तथा सौधर्म थने ईशान, ए आदिना बे देवलोक, एटला स्थानकना मिथ्यात्वी देवता. पृथवी, अप अने वनस्पति, ए त्रणमांहे शुजस्थानमध्ये अवतरे, तेथी तेने तत्प्रायोग्य ए त्रण प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध बंधाय, अने मनुष्य तथा तिर्यंच, ए बे तो संक्लेशें करी अढार कोडाकोडीनी स्थिति बांधे, तेथी ए एना अधिकारी न कह्या; अने सनत्कुमारादिक देवलोकना उपरला वैमानिक देवताने पृथवीकायादिक मध्ये अवतरवू नथी तेथी ते ए त्रण प्रकृति न बांधे. तथा एकेन्यि अने विकलेंजिय, ए त्रण प्रकृति बांधे खरा, परंतु तेउने उत्कृष्टस्थितिबंध नथी अने असंख्याता वर्षायुवाला मनुष्य तथा तिर्यंच, ए त्रण प्रकृति न बांधे, जे जणी तेने देवता विना अन्य स्थानकें अवतर, नथी. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥४३॥ तिरि जरख उगुजोअं, बिवह सुर निरय सेस चगश्त्रा॥ अथ जघन्यस्थितिबंध स्वामीनाद ॥ आदार जिणमपुवो, नियहि संजलण पुरिसलहू ॥४४॥ अर्थ-तिरिउरलमुगुजोयं के तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी तथा औदारिक शरीर अने औदारिक अंगोपांग, पांचमुंउद्योतनाम अने बहुं विवह के बेवहुं संघयण, एउ प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध,वीश कोमाकोमी सागरोपम , तेना बंधाधिकारी स्वस्वप्रायोग्य अति संक्वेशे वर्त्तता सुरनिरय के० मिथ्यात्वी देवता तथा मिथ्यात्वी नारकी होय, केम के मनुष्य तथा तिर्यंच गफ़्रज पंचेंजिय ए प्रकृतिने संक्शे वर्त्ततां अढार कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति बांधे अने तेथी अति संक्विष्ट होय तो नरक प्रायोग्य प्रकृतिनो बंध करे. अने देवता नारकीने तो नरक प्रायोग्य बांधकुंज नथी,ते माटें ते अति संक्लिष्ट ए ब प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध करे, तेमध्ये पण औदारिक अंगोपांग अने बेवहुं संघयण, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध चोथा, पांचमा, छा, सातमा अने श्रापमा देवलोकना देवताने होय पण नीचला देवताने न होय, जे नणी नीचेना देवता तो अतिसंक्वेशे एकेंजिय प्रायोग्य बांधे जे तेथी तेने ए बे प्रकृतिनो अढार कोमाकोमी सागरोपमनो बंध होय, एम चोवीश प्रकृतिना उत्कृष्टी. स्थितिबंध स्वामी कह्या तथा आहारकछिक अने देवायुनो उत्कृष्ट स्थितिबंध स्वामी अप्रमत्त साधु कह्यो, अने जिननामकर्मनो उत्कृष्टस्थितिबंध स्वामी नरकानिमुख सम्यक्त्व वमतो मनुष्य कह्यो. एम अहावीश प्रकृति थ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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