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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ - मनुष्यायु तो विशुद्धियें उत्कृष्ट स्थितिक बंधाय अने तेना बंधक मांहे अतिविशुक्रिये अविरति सम्यक्दृष्टि देवता होय, एटले सम्यक्दृष्टि देवता अतिविशुछिये मनुष्यगतिनो बंधक होय, पण ते देवता त्रएय पढ्योपमायु न बांधे, केम के देव तथा नारकीमांदेथी थावेला जीव संख्याता वर्षायुवाला मनुष्य, तिथंच थाय, पण असंख्याता वर्षायुवाला मनुष्य तिर्यंच न थाय तथा मिथ्यात्वगुणगणानी अपेक्षायें सास्वादन विशुक डे, केम के जे जीवें सास्वादन गुणगणुं स्पर्यु ते नियमा जव्य होय अने अर्बपुजलपरावर्त्तमांहे मोद जाय तथापि सम्यक्त्व वमता सास्वादन होय, तेथी संक्लिष्ट जाणवो. तेथी तिहां मनुष्यायु अने तिर्यंचायुनो बंधक संक्लिष्ट परिणामें जाणQ. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४॥
॥ एम गुणस्थानके स्वामित्व कहीने, हवे जीवनेदें कहेले. ॥ विगल सुहुमानग तिगं, तिरिमणुयासुर विउवि निरयड्गं ॥
एगिदि थावरा यव, आईसाणा सुरु कोसं ॥४३॥ अर्थ-विगलसुहुम के० विकल जातित्रिक तथा सूक्ष्म, अपर्याप्ता अने साधारण, ए सूक्ष्म त्रिक तथा बाउग तिगं के नरकायु, तिर्यंचायु, अने मनुष्यायु, ए त्रण त्रिकनी नव प्रकृति तथा सुर के देवधिक एटवे देवगति ने देवानुपूर्वी तथा विनवि के वैक्रियहिक तथा निरयपुगं के नरकटिक एटले नरकगति भने नरकानुपूर्वी, एवं पंदर प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंधनस्वामी तिरिमणुया के पूर्वकोमी मध्यवर्ति श्रायुष्यवाला मिथ्यादृष्टि संझीा गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंच पंचेंप्रिय होय, जे जणी ए पंदरमांहेथी मनुष्यायु तिर्यंचायुविना शेष तेर प्रकृतिनो बंध जव प्रत्ययें देवता नारकीने नथी, तथा विकलत्रिक ने सूक्ष्म त्रिकनो बंध, एकेंजिय बेंजियादिकने होय पण तेने उत्कृष्ट स्थितियें न बंधाय तथा मनुष्यायु अने तिर्यंचायु पण देवता तथा नारकी बांधे बे, तो पण ते त्रण पक्ष्योपमनी उत्कृष्टीस्थितिवालो आयु न बांधे, केम के देवता तथा नारकी चवीने पूर्वकोटी वर्षयी अधिक श्रायुष्यवाला मनुष्य तथा तिर्यंचमाहे जवप्रत्ययेज अवतरे नहीं, ते माटें पूर्वकोटी आयुना धणीज मनुष्य तथा तिर्यंच पूर्वकोटीना त्रीजा नागना प्रथम समय परजवायु पूर्वकोटी त्रिनागाधिक त्रएय पक्ष्योपमनुं उत्कृष्टस्थितिक मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु बांधे, तेथी ते मिथ्यात्वीज ए बे स्थितिना उत्कृष्ट बंधाधिकारी जाणवा; अने साखादन गुणगणे पडतां जणी तेवी विशुकि न होय, तेथी ते सास्वादनी पण एनो बंधाधिकारी नथी, अहीं स्वस्वबंधयोग संक्वेश लेवो.
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