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________________ ६२४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ .. तेथी सेसचगश्था के० शेष ज्ञानावरणीय पांच,दर्शनावरणीयनी नव,अंतरायनी पांच, शोल कषाय, एवं पांत्रीश तथा जय, जुगुप्सा, वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, मिथ्यात्व, ए सुमतालीश प्रकृति ध्रुवबंधिनी तथा अशाता, अरति, शोक, नपुंसकवेद, पंचेंजियजाति, ढुंमसंस्थान, पराघात, जश्वास, कुखगति, सचतुष्क, अथिरबक, नीचैर्गोत्र, ए वीश अध्रुवबंधिनी प्रकृति, एवं शमशठ प्रकृतिना उत्कृष्टस्थितिबंध स्वामी अतिसंक्वेशे वर्त्तता चतुर्गतिक मिथ्यात्वी जीव जाणवा. तथा शाता, हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नरकटिक, आदिनां पांच संस्थान, तथा आद्य संघयणपंचक, शुनखगति, स्थिरषट्क, उच्चैर्गोत्र, ए पच्चीश प्रकृति अध्रुवबंधिनी तेना उत्कृष्टस्थितिबंधक स्वस्वबंध प्रायोग्य अति संक्वेशे वर्त्तता एवा चातुर्गतिक मिथ्यात्वी जीव होय. ए रीतें बाणुं प्रकृतिना उत्कृष्ट स्थितिबंध स्वामी मिथ्यात्वी जीव कह्या. हवे सर्व प्रकृतिना जघन्यस्थितिबंध स्वामी कहे . आहार के आहारक शरीर अने श्राहारक अंगोपांग, ए आहारकछिकनी जघन्य स्थिति अंतःकोडाकोमी अथवा अंतरमुहूर्त प्रमाण अने जिण के० जिननाम कर्मनी जघन्य स्थिति अंतःकोटीकोटी अथवा देश सहस्र वर्ष प्रमाण तेना बंधक पकश्रेणीयें चढतां मपुवो के अपूर्वकरण नामा श्रापमुं गुणगाणुं तेना बहा नागने चरमबंधे वर्त्ततां एवां मनुष्य होय, जे जणी ए त्रण प्रकृतिना बंधकमांहे एहिज अतिविशुद्धता , एथी अधिक विशुद्धि बीजे स्थानकें नथी थने लघुस्थिति पण त्रण आयुविना शेष एकसो सत्तर प्रकृतिनी मननी विशुद्धियेंज होय . नियहिसंजलणपुरिसलहू के अनिवृत्ति करणनामा नवमा गुणस्थानकें रूपकश्रेपीयें चढतां आप श्रापणा बंधव्यवछेदने चरम समयें पुरुषवेदनो आठ वर्षनो, संज्वलना क्रोधनो बे मासनो, संज्वलनमाननो एक मासनो, संज्वलनमायानो अमासनो, संज्वलन लोननो अंतर मुहर्तनो, जघन्य स्थितिबंध अनुक्रमें पहेला, बीजा, त्रीजा, चोथा अने पांचमा नागने प्रांतें बांधे. ए पांच प्रकृतिना बंधस्थानकांहे एहिज श्रति विशुधि बे, जो पण उपशमश्रेणीयें नवमा गुणस्थानकें पांचमा नागने प्रांतें स्वखबंध व्यवछेद संजवे, तथापि ते रूपकथी अति विशुधि नहीं तेथी ते न लीधा. ए श्राप प्रकृतिना जघन्य स्थितिबंध स्वामी कह्या. ॥४॥ साय जसु चा वरणा, विग्धं सुहुमो विनवि व असन्नि ॥ सन्नीवि आज बायर, पो गिदिन सेसाणं ॥४५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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