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________________ ६०४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-वीसयर के संख्याये वीश अने अयर एटले तरी शकाय नहीं, ते माटें ए अतर कहेतां सागर तेनी उपमायें करीमन्यु जे कालमान, तेने सागरोपम कहीयें, तिहां पदयनी उपमा पल्योपम कहीये. ते योजन प्रमाणे कूवो असंख्यवाला जरी सो सो वर्षे एकेक केशखंग काहाडतां कूप निर्लेप थाय, तेनो काल, तेने अशापख्योपम कहीये. तेवा दश कोमाकोडी कूपमान क्षेत्र ते सागरोपम, तेने निर्लेपनो काल, तेने अज्ञासागरोपम कहीये. ते अझासागरोपमनी कोडिकोडी के वीश कोडाकोडी नामेगोएय के नामकर्म अने गोत्रकर्मनी उत्कृष्टी स्थिति होय, एटले बांधेदुं कर्मदल विणशे नहीं तो एटलो काल रहे तथा परिणाम विशेषे स्थितिघात करतो अपवर्तनकरणे करी स्थिति घटावतां घटी पण जाय, तेम उतनाकरणे करी स्थितिने वधारे पण खरी अने जो निकाचित्तबंध कस्यो होय, तो बंधे घटे नहीं. एनो थबाधाकाल, बे हजार वर्षनो जाणवो. - तथा सत्तरीमोहे के मोहनीयकर्मनो उत्कृष्ट स्थितिबंध सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कह्यो . ए बंध उत्कृष्ट संक्लेशे मिथ्यात्व गुणगणे होय अने श्रबाधा काल सात हजार वर्षहीन कर्मदलनो निषेक कहेतां ए कर्मनो रसोदय काल जाणवो. एटले त्रण कर्म कह्यां अने ए थकीइतर एटले अन्य जे चार कर्म, एटले एक ज्ञानावरणीय, बीजु दर्शनावरणीय, त्रीजुं वेदनीय अने चोथं अंतराय, चउसु के ए चार कर्मनी उत्कृष्टी स्थिति तीसयर केत्रीश कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट संक्शे मिथ्यात्वगुणगणे होय. ए चार कर्मनो श्रवाधाकाल त्रण हजार वर्षनो, तेत्रण हजार वर्ष हीन त्रीश कोडाकोडी सागरोपम रसोदय काल जाणवो, उदही के समुज एटले परमार्थे सागरोपम जाणवू. तेवा तित्तीसा के तेत्रीश सागरोपम कालनी स्थिति श्रायुःकर्मनी निरयसुरामि के नारकी श्रने देवायुनी अपेक्षायें कहीये. एटले अत्यंत संक्लिष्टपरिणामें मिथ्यात्वीने नरकायुनो बंध तेत्रीश सागरोपम कालप्रमाण होय अने अत्यंत विशुद्धपरिणामें प्रमत्त तथा अप्रमत्तने तेत्रीश सागरोपम सुरायुनो बंध होय. अहीं अबाधाकाल उत्कृष्ट तो पूर्व कोडीनो त्रीजो जाग अने जघन्यथी तो अंतरमुहर्त्तकाल होय.अहींयां उत्कृष्ट आयुबंधे नियत उत्कृष्टो अबाधाकाल न होय, ते जणी, निन्न लेखव्यो. एनो रसोदय काल, तेत्रीश सागरोपम जाणवो, परंतु पूर्वकोडीने त्रीजे नागें हीन न जाणवो. अहीं आयुकमनी मूलप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहेवाने अवसरें नरकायु तथा देवायु, ए बे उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध काल कह्यो, ते ग्रंथगौरव टालवा नणी कह्यो, अथवा ए बन्नेनुं किंचित् अनेदपणुं जणाववाने अर्थे कह्यो. ॥ २६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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