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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ ६०३ थाय, तिहांधुर समयथी मनुष्यथी मनुष्य प्रायोग्य उगणत्रीश प्रकृति बांधे, ते बीजो अव्यक्तबंध; तथा तिहां कोई एक जिननाम सहित त्रीश प्रकृति बांधे, तेवारें तेनी अपेक्षायें प्रथम समयें त्रीजो श्रव्यक्तबंध जाणवो. ए त्रए अव्यक्तबंध कह्या. एम नामकमनी उत्तरप्रकृतिनां बंधस्थानक, जूयस्कारबंध, अल्पतरबंध,अवस्थितबंध, श्रने अव्यक्तबंध, ए चारे कह्या. सेसेसुहाणमिकिकं के हवे शेष एक ज्ञानावरणीय, बीजु वेदनीय, त्रीजु श्रायु, चो, गोत्र, अने पांच, अंतराय, ए पांच कर्मर्नु एक एक बंधस्थानक होय. केम के झानावरणीय श्रने अंतराय, ए बे कर्म ध्रुवबंधी बे. तेमाटें दशमा गुणगणा सुधी एनी सर्व पांचे प्रकृति नेलीज बंधाय. त्यां नूयस्कार अने अल्पतर बंध न होय अने एक अवस्थितबंध सदाय होय, अने शेष वेदनीय, श्रायु ने गोत्र, ए त्रण कर्मनी प्रकृति बंधविरोधिनी बे, तेथी ते एक समये एकज बंधाय तेथी तेनुं बंध. स्थानक पण एकज होय. अहींश्रां नूयस्कार तथा अल्पतरबंध न होय अने वेदनीय तो तेरमा गुणगणा सुधी बंधाय , माटें ते विना शेष चार कर्मनो श्रव्यतबंध एक होय, केम के अगीथारमे गुणगणे अबंधक होइने फरी बांधतां प्रथम समयें अव्यक्तबंध अने तेवार पनी द्वितीयादिक समयें अवस्थितबंध जाणवो. ए. टले सविस्तर प्रकृतिबंध कह्यो. अहींयां मूलप्रकृतिनो तो जघन्य एक, उत्कृष्टो आउनो बंध ने अने उत्तरप्रकृ. तिनो जघन्य एक, उत्कृष्टो चम्मोतेरनो बंध , अहीश्रां अनादि, सादि, अनंत अने सांत, ए चार नांगा पोतानी मतियें विचारी कहेवा. तिहां मूलप्रकृतिना बंध. स्थानकें, उधे सादि सांत नांगो होय.जे नणी नवनवने विषे एकज वार आयु बांधे, तिहां श्रानो बंध अने शेष कालें सात प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. तथा उत्तरप्रकृतिमध्ये झानावरणीय तथा दर्शनावरणीय- एकेक बंधस्थोनक, अने वेदनीयनो एकनो बंध, तथा मोहनीयनो बावीशनो बंध, गोत्रनो एकनो बंध, अंतरायनो पांचनो बंध, ए. टले बंधे अजव्यनी अपेक्षायें अनादि अनंत अने नव्यनी अपेक्षायें अनादि सांत तथा सादि सांत, एत्रण नांगा होय, अने शेष बंधस्थानकें सादि सांत नांगो एकज होय. ए सादि सांतपणुं ते स्थितिमान जाणवू. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २५ ॥ ___एम नूयस्कारादिक प्रकारे करी कर्मप्रकृतिनो बंध कह्यो. ॥हवे मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतिनो स्थितिबंध स्वामित्वछारें करीसविस्तरपणे कहे जे.॥ वीसयर कोडि कोडि, नामे गोए य सत्तरी मोरे॥ तीसयर चनसु उदही, निरय सुराजेमि तित्तीसा ॥२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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