________________
४३६ __बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ,
॥ ते हवे मिथ्यात्वं शोल प्रकृतिनो बंधविछेद करे, ते कहे .॥ विणु निरय सोल सासणि, सुराज अण एग तीस विणु मी
से ॥ ससुराज सयरि सम्मे, बीअ कसाए विणा देसे ॥ ए॥ अर्थ- विणुनिरयसोल के नरकत्रिकादिक शोल प्रकृति विना सासणि के सास्वादनगुणगणे एकसो ने एक प्रकृति बांधे, सुरान के देवायु अने अणएगतीस के० अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश प्रकृति, एवं बत्रीश प्रकृति. विणु के विना मीसे के० मिश्रगुणगणे उंगणोतेर प्रकृति बांधे, तेने ससुराज के देवायुयें सहित करतां सयरि के सीत्तेर प्रकृति सम्मे के0 अविरतिसम्यकुदृष्टिगुणगाणे बांधे. तथा बीअकसाए विणा के बीजा अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय विना देसे के देशविर तिगुणगणे गसठ प्रकृति बांधे. ॥ए॥
तेवारे सास्वादनगुणगणे नरकत्रिक, चार जाति, थावरचतुष्क, हुंमसंस्थान, बे. वहुं संघयण, शातपनाम, ए चौद प्रकृतिमांहे तेर नामकर्मनी अने एक नरकायुनी तथा मिथ्यात्व भने नपुंसक, ए बे मोहनीयनी. एवं शोल प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वने उदयें करी होय, ते मिथ्यात्वनो उदय अहीं नथी ते माटे ए शोल प्रकृति विना शेष एकसो ने एक प्रकृति लब्धिपर्याप्ता पंचेंजिय, तिर्यंच बीजे सास्वादनगुणगणे बांधे.
ते एकसो ने एक प्रकृतिमाहेश्री सुरायु अने अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश. एवं बत्रीश प्रकृति विना शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय जंगणीश, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, एवं उंगणोतेर प्रकृति मिश्रगुणगणे लब्धिपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच बांधे. केमके त्यां मिश्रगुणगणे श्रायुबंध न होय, ते माटे सुरायुनो अबंध कह्यो भने अनंतानुबंधीश्रा चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यमसंघयण चार, कुखगति, नीच्चैर्गोत्र, स्त्रीवेद, दौर्जाग्यत्रिक, थीणकीत्रिक, उद्योतनाम, तिर्यंचत्रिक, ए पच्चीश प्रकृति अनंतानुबंधीयानो उदय अ. ही नथी, ते माटे न बंधाय. अने नरकत्रिक, औदारिकहिक अने प्रथम संघयण. एवं उ प्रकृति मनुष्यप्रायोग्य देवता अने नारकी जेहवी विशुद्धियें बांधे, तेवी विशुछिये तिर्यंच अने मनुष्यने देवप्रायोग्य बंधाय तेथी एक प्रकृति न बंधाय. हवे ए उंगणोतेर प्रकृतिमाहे वली चोथे गुणगणे थायु बंधाय तेथी सुरायु बंध नेलतां सीत्तेर प्रकृतिनो बंध, अविर तिसम्यक्दृष्टिगुणगणे लब्धिपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच बांधे. ___ ए सीत्तेर प्रकृतिमाहे मोहनीयनी प्रकृति जे अप्रत्याख्यानावरणकषाय चार. तेनो बंध विछेद होय, जेमाटे ए कषाय तो पोतानो उदय ज्यांसुधी बतो होय त्यांसुधी बंधाय अने अ..
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org