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बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३५ अण चन वीस विरहिआ, सनर गुच्चाय सयरि मीसगे॥
सतरस उहि मिजे, पज तिरिया विणु जिणादारं ॥ ७ ॥ अर्थ- अणचवीस के अनंतानुबंध्यादिकथी तिरिग लगें चोवीश प्रकृति. विरहिया के विरहित करीयें, अने नरफुगुच्चाय के मनुष्यहिक तथा उच्चैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृतियें स के सहित करीयें, तेवारें सयरि के सीत्तेर प्रकृतिनो बंध, मीसफुगे के मिश्र अने अविरति, ए बे गुणगणे होय अने पजतिरिया के पर्याप्ता पंचेंजियतिथंच ने विणुजिणाहारं के तीर्थकरनामकर्म अने आहारकछिक विना सतरसहिमिन्छे के० एकशो सत्तर प्रकृतिनो बंध उचे सामान्य मिथ्यात्वगुणगणे होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ७ ॥
अनंतानुबंधीया कषाय चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, कुखगति, नीचैर्गोत्र, स्त्रीवेद, दो ग्यत्रिक, श्रीणीत्रिक, उद्योतनाम, तिर्यंचगति, तिर्यगानुपूर्वी, ए चोवीश प्रकृति अनंतानुबंधीना उदय विना न बंधाय, तेथी ते कषायोदय हीन . माटे मिश्र श्रने अविरतिगुणगणे पूर्वोक्त एकाए॒मांहेश्री चोवीश हीन करीयें, तेवारें शेष शमशठ प्रकृति रहे, तेमांहे मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, अने जच्चैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृति एउने अतिविशुरू अध्यवसायें बंधाय, जे जणी ए थकी अ. धिक पुण्यप्रकृतिबंध सातमी पृथिवीना नारकीने नथी, तेथी अहींयां विशुझाध्यवसायें ए त्रण प्रकृति बंधाय, तेणे सहित करतां ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय उंगणीश, नामनी बत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, एम सीत्तर प्रकृतिनो बंध त्रीजे, चोथे, गुणगणे जाणवो.
एम नरकगतिमध्ये उपें एटले सामान्य तथा विशेषे बंधखामित्व कही, हवे तिर्यंचने उपें तथा विशेषे बंधस्वामित्व कहे.
२ एकसो वीश प्रकृतिमाहेथी त्रण प्रकृतिनो वंध, तिर्यंचगतिमध्ये न लाने, तेथी तिर्यंच विशेष पर्याप्ता लब्धियें करीने पंचेंजिय तिर्यंचने उ तथा मिथ्यात्वगुणस्थानकविशेषे एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध होय, अने नामकर्मनीत्रण प्रकृति न बंधाय, जे जणी तिर्यंचने जवप्रत्ययें तीर्थकरनामकर्म सत्तायें पण न होय,तो बंधे केम होय ? तथा थाहारकशरीर, श्राहारकअंगोपांग, ए बे कर्मप्रकृति विशिष्टचारित्र विना न बंधाय, अने तिर्यंचने तो सर्व विरति न होय, तेथी ए त्रण नामकर्मनी प्रकृति लब्धिपर्याप्ता तिर्यंच न बांधे, शेष एकसो ने सत्तर बांधे. ॥ ७ ॥
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