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________________ ३६ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. बंधधी विछेद पामे. सत्तव के अथवा सात प्रकृति विछेद पामे. नेसुराउजयानिई के जो कोश् प्रमत्त साधु देवायु बांधवा मांडे, अने संपूर्ण करी नेष्टा पमाडे पोचाडे, तो सात प्रकृतिनो अंत करे ॥७॥ - अविरतिसम्यकदृष्टिगुणगणे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय उगणीश, आयुनी बे, नामकर्मनी साडनीश, गोत्रकर्मनी एक, अने अंतरायकर्मनी पांच, ए रीतें सत्त्योतेर प्रकृतिनो बंध बे, ते मध्ये चम्मोतेर प्रकृतिनो बंध जे मिश्रगुणगणे कह्यो तेज बाहिं लेवो अने अहीं सम्यकदृष्टि के तेथी तन्निमित्त जिननामकर्मनो पण बंध लाने तथा सम्यकदृष्टि देवता, तथा नारकी, ए बेह मनुष्यायुज बांधे अने सम्यकूदृष्टि मनुष्य, ते तिर्यंच अने देवायुज बांधे, तेथी सर्वजीवनी अपेक्षायें चोथे गुणगणे सत्योतेर प्रकृतिनो बंध पामे. हवे अहीं विछेद कहे . वज्रषजनाराचसंघयण, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, ए मनुष्यत्रिक, औदारिकशरीर अने औदारिक अंगोपांग ए औदारिकछिक. एवं उ प्रकृतिनो बंध चोथे गुणगणे देवता श्रने नारकीने होय. मनुष्यगति प्रायोग्य बांधे, श्रागला गुणगणां देवता श्रने नारकीने न होय. तेथी ए प्रकृतिनो बंध न पामीयें, तेथी विछेद तथा अप्रत्याख्यानी चार कषायनो बंध पण आगले गुणगणे न लाने. आपणा उदयने अनावें कषायनो बंध पण न होय, तेथी ए दश प्रकृतिनो बंध विछेद चोथे गुणगणे. ते मध्ये अप्रत्याख्यानीथा चार ते मोहनीयनी प्रकृति, मनुष्यायु ते श्रायुनी प्रकृति, शेष पांच नामकर्मनी प्रकृति, एवं दश प्रकृति टली. शेष ज्ञानावरणीयनी पांच,दर्शनावरणीयनी उ, वेदनीयनी बे, मोहनीयनी पंदर, श्रायुनी एक, नामनी बत्रीश, गोत्रनी एक श्रने अंतरायनी पांच, ए शमशव प्रकृतिनो बंध, देशविरतिगुणगणे उचे होय, तिहां बंधविछेद त्रीजो कषाय जे प्रत्याख्यानावरण, तेनी चोकडी ए चार कषायनी प्रकृतिना बंधनो अंत थाय. जे जणी प्रथम बार कषायनो बंध थापणे उदय होते थके पागल उदय नथी तेथी बंध पण न होय. तेवारें शमश: प्रकृतिमाहेथी मोहनीयनी चार टालवी ॥६॥ बाकी ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय अगीवार, श्रायुनी एक, नामनी बत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, ए त्रेशठ प्रकृ. तिनो बंध, प्रमत्तगुणगणे मनुष्यने होय. त्यां ब तथा सात कर्मप्रकृतिनो बंधविछेद अने बंधप्रांत होय, ते हवे कहे जे. एक शाक, अने बीजी अरति. ए बे मोहनीयनी प्रकृति. एक अस्थिरनामकर्म, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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