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________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ३ए श्रने ए मिश्र प्रमुख श्रागले गुणगणे अनंतानुबंधीयानो उदय न होय, तेवारें ए गुणगणे एनो पण बंध न होय अने उद्योतनाम, तथा तिर्यगायु. ए बे पुण्यप्रकृति पण तिर्यप्रायोग्य प्रकृतिबंध टलेथी एनो पण बंध न होय. ए पच्चीशमध्ये थीणकीत्रिक, दर्शनावरणकर्मनी अने अनंतानुबंधीया चार तथा स्त्रीवेद ए पांच प्रकृति, मोहनीयकर्मनी एक गोत्रप्रकृति, एक तिर्यगायुप्रकृति. एवं दश थर श्रने शेष पंदर प्रकृति नामकर्मनी एवं पच्चीश प्रकृतिनो बंध प्रांतसास्वादने होय, तेवारे ज्ञानावरपीय पांच, दर्शनावरणीय उ, वेदनीय बे, मोहनीयनी उंगणीश, नामकर्मनी बत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच. एवं चम्मोतेर प्रकृति मिश्रगुणगणे सर्व जीवनी अपेक्षायें बंधाय. जे माटे सास्वादनगुणगणे एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध हतो, तेमांहेथी अनंतानुबंधीयाना उदयने अनावें तन्निमित्तक पच्चीश प्रकृतिनो बंध टल्यो तेवारें होंतेर प्रकृतिनो बंध रह्यो, ते मध्ये पण मिश्रगुणगणे श्रायुबंध योग्य अध्यवसाय नथी, तेथी त्यां देवायु; मनुष्यायु, ए बे थायु पण न बंधाय. जे जणी शास्त्रे कडं के “समामिबदिहिवाग बंधपि न करेई" पण श्रोगलें चोथे गुणगणे बंध करशे तेथी ए बेश्रायुनो बंध विछेद न कह्यो, पण प्रबंध कह्यो तेथी चम्मोतेर प्रकृ. तिनो बंध, मिश्र गुणगणे होय, यहां को प्रकृतिनो बंधविच्छेद नथी. ॥५॥ सम्मे सग सयरि जिणा, उबंधि वर नरतिष बिज कसाया ॥ उरल गंतो देसे, सत्तही तिय कसायं तो ॥६॥ ते वहि पमत्ते सो, ग अरश् अथिर उग अजस अ स्सायं ॥ वुबिक बच्च सत्तव, नेश सुराउंजया निळं ॥७॥ अर्थ-सम्मे के अविरतिसम्यक्दृष्टिगुणगणे सगसयरि के सत्योतेर प्रकृतिनो बंध होय. जिणाउ के० जिननाम अने मनुष्यायु तथा देवायु, ए बे आयु. एवं त्रण प्रकृति बंधि के बांधे तेमाटे. अने वर के वज्रषजनाराचसंघयण, नरतिष के० मनुष्यत्रिक, विश्रकसाया के बीजा अप्रत्याख्यानीथा चार कषाय अने उरलगंतो के औदारिकछिक. ए दश प्रकृतिना बंधनो अंत करे, तेवारे देसे के० देशविरतिगुणगणे सत्तही के शमसठ प्रकृतिनो बंध करे श्रने त्यां तियकसायंतो के० त्रीजा प्रत्याख्यानावरण चार कषायनो अंत करे ॥६॥ तेवार तेवहिपमत्ते के वेशव प्रकृतिनो बंध, प्रमत्तगुणगणे होय अने एक सोग के शोकमोहनीय, बीजी अरश के० घरतिमोहनीय, अथिराग के अस्थिरछिक, एवं चार. पांचमुं अजस के अयशःकीर्तिनामकर्म, उहुं अस्सायं के० अशातावेदनीय, उच्च के एक प्रकृति वुबिक केप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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