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३४ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध हतो तेमांथी ए शोल प्रकृतिनो बंध टल्यो शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीयनी चोवीश, श्रायुनी त्रण, नामकर्मनी एकावन, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एम सर्व मली एकसो ने एक कमप्रकृतिनो बंध सास्वादनगुणगणे सर्वजीवनी अपेक्षायें होय.
हवे सास्वादने जेटली प्रकृतिनो बंधविच्छेद होय, ते कहे . तिर्यंचादिक त्रण श्रागल त्रिक शब्द जोडियें, तेवारे तिर्यंचत्रिक, श्रीणीत्रिक, दौर्जाग्यत्रिक, ए त्रण त्रिक कहिये. तिथंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, अने तिर्यंचायु, ए तिर्यचत्रिक, थीणजी, निसानिमा श्रने प्रचलाप्रचला. ए श्रीणजीत्रिक, दौ ग्यनाम, पुःस्वरनाम, अने अनादेयनाम, ए दौ ग्यत्रिक एवं नव प्रकृति थइ ॥४॥
अण मजागिइ संघय, ण चन नि नजोअ कुखग बित्ति ॥ पणवीसंतो मीसे, चनसयरि उदानअ अबंधा ॥५॥ अर्थ-श्रण के अनंतानुबंधी चतुष्क, मशागिर के मध्याकृति एटले मध्यसंस्थानचतुष्क, संघयणचन के मध्य संघयणचतुष्क, चउ के० ए त्रण चतुष्कनी बार प्र. कृति थइ. नि के नीचैर्गोत्रकर्म, उजोश के उद्यातनामकर्म, कुखग के अशुजविहायोगति, वित्ति के० स्त्रीवेदमोहनीय. इति एटले ए पणवीसंतो के० ए पच्चीश प्रकृतिनो अंत बंधविच्छेद सास्वादने थाय. तेथी मीसे के मिश्र गुणगणे चउसयरि के चम्मोतेर प्रकृतिनो बंध होय. जे जणी ए गुणगणे उहाउथश्रबंधा के० मनुष्यायु तथा देवायु, ए बे श्रायुनो श्रबंध डे माटे चम्मोतेरनो बंध थाय.॥श्त्यदरार्थः ॥५॥ । श्रहीं श्रण कहेतां अनंतानुबंधी प्रमुख त्रण शब्द डे ते आगल चल शब्द जोडी, तेवारें त्रणचजक थाय. एटले अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोन. ए चारने अनंतानुबंधी चजक कहीयें. श्रने न्यग्रोध, सादि, वामन अने कुज. ए चार मध्य एटले वचलां संस्थान, ए मध्यमसंस्थानचउक. यहीं श्राकृति एटले शरीराकार ते संस्थानरूप तन्निमित्तक कर्म प्रकृति पण श्राकृतिनाम जाणवी. तथा ऋषजनाराचसंघयण, नाराचसंघयण, अर्डनाराचसंघयण अने कीलिकासंघयण, ए चार वचला संघयण ने एने मध्यसंघयणचजक कहीयें. एटले त्रण चोक बार प्रकृति कही थने त्रण त्रिक नव प्रकृति पूर्वली गाथामां कही, एवं एकवीश प्रकृति थइ. बावीशमुं नीचगोत्र, त्रेवीशमुं उद्योतनामकर्म, चोवीशमुं अशुनविहायोगति, पच्चीशमुं स्त्रीवेद. एवं पञ्चीश प्रकृतिमध्ये एक उद्योतनाम अने बीजु तिर्यगायु. ए वे प्रकृति विना शेष त्रेवीश पापप्रकृति, तीवसंक्लेशे बंधाय श्रने ते तीवसंक्वेश अनंतानुबंधीयाने उदय होय
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