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कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. । ३५३ ए त्रण प्रकृति, मिथ्यात्वी जीव, न बांधे. कारण के जिननामकर्म, सम्यक्त्व विना न बंधाय अने हारकठिक, शुद्धचारित्र विना न बंधाय, ते सम्यक्त्व अने चारित्र ए बेवानां मिथ्यात्वें नथी, तेथी ए त्रण प्रकृति न बंधाय. तेथी ते वर्जीने शेष ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, वेदनीयनी बे, मोहनीयनी बबीश, श्रायुनी चार, नामकर्मनी चोशल, गोत्रकर्मनी बे अने अंतरायकर्मनी पांच. एम सर्व मली एकसी ने सत्तर प्रकृति सर्व मिथ्यात्वीजीवनी अपेक्षायें प्रथमगुणगणे बंध योग्य होय. केमके मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग, ए चार मूलहेतु त्यां होय तेथी ते निमित्तें एकसो ने सत्तर प्रकृति बंधाय, अने सम्यक्त्वप्रत्ययिक जिननाम तथा चारित्रप्रत्ययिक, श्राहारकछिक, ए त्रण प्रकृति न होय. ॥३॥
॥ हवे मिथ्यात्वगुणगणे केटली प्रकृतिनो बंधविछेद थाय, ते कहे. ॥ नरय तिग जाइ थावर, चन हुँमा यव निवळ नपु मि॥
सोलंतो गदिअसय, सासणि तिरि थीण उदग तिगं ॥४॥ अर्थ-नरयतिग के नरकत्रिक, जा के० एकेडियादिक जाति चार, थावरच के स्थावरचतुष्क, हुंड के हुँमसंस्थान, आयव के श्रातपनामकर्म, विवाह के बेवहुं संघयण, नपु के नपुंसकवेद मिछं के मिथ्यात्वमोहनीय, सोलंतो के ए शोल प्रकृतिनो अंत करे, गहिसय के शेष एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध सासणि के साखादन बीजे गुणगणे होय. त्यां तिरि के तिर्यंचत्रिक, श्रीण के० थीणझित्रिक, उहगतिगं के दौ ग्यत्रिक, ए त्रण त्रिक ॥४॥
नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु. ए नरकत्रिक तथा एकेंजियजाति, बेंजियजाति, तेंजियजातिअने चौरिंजियजाति,ए जातिचतुष्क. एसात प्रकृति तथा स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म अने साधारणनामकर्म. एवं चार साधारणनाम प्रत्यश्च ए स्थावरचतुष्क कहीयें, एवं अगीधार. बारमुं हुंग संस्थान, तेरमुं श्रातपनाम, चौदमुं बेवकुं संघयण, पंदरमुं नपुंसकवेद, शोलमुं मिथ्यात्वमोहनीय. एमां बे मोहनीयनी प्रकृति तथा एक नरकायु ते थायुनी प्रकृति, शेष तेर प्रकृति नामकर्मनी. एम सर्व मली शोल प्रकृतिनो बंधविछेद मिथ्यात्वगुणगणे थाय. केम के ए शोख प्रकृति, मिथ्यात्व प्रत्ययीनी तेथी ते मिथ्यात्व उदयेंज बंधाय. ते विना न बंधाय तेथी भागले गुणगणे मिथ्यात्वीनोरसोदय न लाने तेथी ए शोल प्रकृतिनो बंध पण त्यां न लाने मात्रै ए शोल प्रकृतिना बंधनो प्रारंन मिथ्यात्वगुणगणे होय, एने बंधविछेद कहीये. एम पागल पण बंधविछेदनो अर्थ जाणवो. तेवारें मिथ्यात्वे
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