________________
३एवं
कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. अहीं व्युपरतक्रिय एटले ग ने क्रिया ज्यां, श्रप्रतिपाति एवे नामे शुक्लध्याननो चोथो पायो होय, ते जणी सूक्ष्मकाययोग ने ते जणी केवलीने योगनिरोधध्यान होय तेतो सर्वथा योगने बनावें न होय अने योगीपणुं ते बादरयोगना अनावनी अ. पेक्षायें सेवं. ए चौद गुणगणानुं स्वरूप कडुं.
हवे ए चौद गुणगणानुं कालमान कहे जे. मिथ्यात्वनो तो अजव्यने अनादि अनंत अने जव्यने अनादि सांत तथा सादिसांत जाणवो, अने पांचमा, तेरमा, हा अने सातमार्नु कालमान, देशे जणी पूर्व कोमी जाणवू. चोथार्नु तेत्रीश सागरसाधिक कालमान डे. सास्वादननो श्रावलिप्रमाण, चौदमानो पांच हृस्वाक्षरनो काल जाएवो. अने शेष उ गुणगणानो काल अंतर मुहूर्त. ए उत्कृष्ट कालमान जाणवू.
॥ हवे यहीं बंधप्रकृति कहे जे. ॥ अभिनव कम्मग्गदणं, बंधोउदेण तब वीस सयं ॥
तिबयरा दारग उग, वऊं मिबंमि सतर सयं ॥३॥ अर्थ-श्रजिनवकम्मग्गहणं के नवा कर्मनुं ग्रह, जीवप्रदेश साथै कर्ममलनुं मेलवq ते बंधो के, बंध जाणवो, त के त्यां उदण के० उघे एटले सामान्य नये वीससयं के० एकसो ने वीश प्रकृतिनो बंध जाणवो भने तिबयर के एक तीर्थकरनामकर्म अने थाहारगपुग के आहारकछिक, एवं त्रण प्रकृति वशं के० वर्जीने मिळमिसतरसयं के मिथ्यात्वगुणगणे एकसो ने सत्तर बंधाय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ३ ॥
मिथ्यात्वविरत्यादिक सत्तावन सामान्य बंधहेतु अने ज्ञानज्ञानवंतादिकनी प्रत्यनीकतादिक ते विशेष बंधहेतु बे, तेणे करी नवां कर्म, पूर्वे बांध्यां , तेनी अ. पेक्षायें नवां बंधातां जे ज्ञानावरणीयादिक मूल पाठ प्रकृति तथा मतिज्ञानावरणीयादिक उत्तर प्रकृति एकसो वीश, तेनो स्थितिरस अने प्रदेशपणे निर्धारवो, जीवप्रदेश साथै मेलाववो, ते बंधनकरणजीववीर्य विशेष तजन्य ते बंध कहीये. तिहां उघ एटले सामान्य चउद गुणगणां गुणनेद, जीवनेदादिक विशेष निरपेद सर्वजीवने सामान्यप्रकारे झानावरण पांच, दर्शनावरण नव, वेदनीय बे, मोहनीय बबश, श्रायुनी चार, नामकर्मनी शमशन, गोत्रनी बे, श्रने अंतरायनी पांच. एम सर्व मली एकसो ने वीश उत्तर प्रकृति बंधाय. ए रीतें सामान्य सर्व जीवने बंध कहीमें.
हवे गुणस्थानक विशेष कही, बंधप्रकृति विशेषे कहीये .यें. तिहांप्रथम मिथ्यात्व गुणगणे वर्तमान जीवने बंध कहेले. ते पूर्वोक्त एकसो ने वीश बंधयोग प्रकृतिमाहे एक जिननामकर्म, बीजु थाहारकशरीरनामकर्म, त्रीजें याहारकअंगोपांगनामकर्म,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org