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________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. GUI बीजं श्रशुभनामकर्म, ए अस्थिर द्विक. त्रीजुं यशः कीर्त्तिनामकर्म, ए त्रण नामक - प्रकृति ने एक अशातावेदनीयनी प्रकृति. ए त्रण कर्मनी व प्रकृतिनो निमित्तप्रमाद वे ते प्रमाद बते ए अशुनप्रकृति बंधाय. आगले गुणठाणे विशुद्धाध्यवसायजणी दुष्टयोगजन्य जे प्रकृति, ते प्रमादने जावें न बंधाय, तेथी त्यां शुभयोग निवर्ते, त्यां ए प्रकृतिनो बंध पण निवर्त्ते, तेथी बनो बंध विच्छेद ने आयुः कर्मनो बंध अतिविशुद्धपरिणामें न होय तिहां घोलना परिणामें प्रमत्तगुणवर्णे देवा बांध्या पढी सातमे गुणठाणे चढतो सात प्रकृतिनो बंध विछेद जे जणी अति विशुद्ध अध्यवसाय जणी श्रायुबंध पण यागले गुणठाणे नथी, तेवारें व प्रकृति प्र थम कही ते अने सातमुं सुरायु. ए सात प्रकृतिबंधनी अपेक्षायें प्रमत्तगुणगणे वि. छेद पामे ने जो प्रमत्तें देवायुनो बंध करतो ते बंध पूर्ण करया विना श्रप्रमत्तें चढे तो केवल देवायुनोज ज्यांसुधी बंध पूर्ण करे, त्यांसुधी श्रप्रमत्तें पण श्रायुबंध पामीयें, तो व प्रकृतिना बंधनो विछेद होय ते वारे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय छ, वेदनीय एक, मोहनीय नव, श्रायुनी एक, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक छाने अंतरायनी पांच ॥ ७ ॥ गुणस अप्पमत्ते, सुराज बधं तु जइ इहा गढे ॥ अन्नद अठावन्ना, जं आहारग डुगं बंधे ॥ ८ ॥ अर्थ - ए सर्व मली गुणस श्रिप्पमत्ते के० गणशाव प्रकृतिनो बंध श्रप्रमत्तगुणगणे होय. सुराजबद्धंतु के० देवायु बांधतो थको ज‍ के० यदि एटले जो इहागडे के० प्रमत्तगुणठाणे यावे तो श्रने अन्नह के अन्यथा देवायु विना तो अठावन्ना ho वनप्रकृतिबंध होय. जंश्राहारगडुगंबंधे के० जे जणी आहारकद्विक बांधे, तेवारें श्रावन्न अथवा उगणशाठ प्रकृतिनो बंध थाय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ८ ॥ ए अंगणात प्रकृति श्रप्रमत्त संयतगुणठाणे प्रवर्त्ततो बांधे. वहीं शिष्य पूढे बे के हे जगवन् ! श्रायुबंध घोलना परिणामे होय बे, ते यहीं घोलना परिणाम नथी तो केम श्रायुबंध होय ? तत्रोत्तरं. हे शिष्य ! जो प्रमत्त थको घोलना परिणामे करी देवायुबंध करतो प्रमत्तनो काल पूर्ण थये देवायुबंध पूर्ण दुवे थके श्रप्रमत्तगुणठाणे पण यावे, तिहां कुंजारना चक्र मणन्यायें करी पूर्वले घोलना परिणामें श्ररंजेलो श्रायुबंध ज्यांसुधी पूर्ण करे, त्यांसुधी श्रप्रमत्तगुणठाणे पण देवायु बंध पामीयें, तेथी गणशाव प्रकृतिनो बंध वे पण अप्रमत्त बते श्रायुबंध श्रारंजे Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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