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३एन कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. नहिं. अन्यथा एटले जो प्रमत्तगुणगणे सुरायुबंध आरंजी पूर्ण करतो, वलतो अप्रमत्तगुणगणे आवे, तो आयु विना सात कर्ममांहेली ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय एक, मोहनीय नव, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक, थने आंतरायनी पांच, ए अहावन्न प्रकृति बाँधे. तिहां शिष्य पूढे डे के, ए केम होय जे जणी प्रमत्तबंध, त्रेशठ प्रकृतिनो डे तेमांथी उ प्रकृतिनो बंधविछेद थयो, तेवारें सत्तावन प्रकृति होय अने सात प्रकृतिबंधविच्छेद करतां उत्पन्न प्रकृति होय, पण उंगणशात अने बहावन्न प्रकृति केवी रीतें होय? तिहां गुरु उत्तर कहे जे के, अहीं अतिविशु चारित्रने सनावें तन्नैमित्तिक आहारकशरीर अने आहार• कअंगोपांग, ए बे प्रकृति अधिक बंधाय, ते नेलतां श्रोगणशात अने असावन थाय. ए रीतें सुरायु विना शेष बहावन प्रकृतिनो बंध अप्रमत्तसंयतने कह्यो. ॥ ७॥
अमवन्न अपुवा इमि, निदगंतो उपन्न पण नागे॥ सुर
जुग पणिदि सुखग३, तस नव उरल विणु तणु वंगा ॥॥ अर्थ- श्रमवन्न के श्रावन प्रकृतिनो बंध अपुवाशमि के अपूर्वकरणना प्रथमनागने विषे निदगंतो के त्यां निमाछिकनो अंत थाय, तेवारें बप्पन्न पणनागें के उप्पन्न प्रकृतिनो बंध, द्वितीयादिकथी मांडी कहासुधीना पांच लांगें होय, पांचे नागे सत्तातो बप्पन्ननीज पण स्थितिघात, रसघात, गुणसेढी, गुणसंक्रम, अपूर्वबंध, ए पांच वानां करे, सुरजग के० सुरहिक, पणिं दि के पंचेंजियजाति, सुखग के शुजविहायोगति, तसनव के त्रसनवक, उरलविणुतणुवंगा के एक औदारिक विना शेष चार शरीर अने वैक्रियोपांग तथा श्राहारकोपांग, ए बे उपांग. एवं उंगणीश प्रकृति ॥ श्त्यदरार्थः ॥ ए॥
तेहज अपूर्वकरण एवे नामे आग्मुं गुणगणुं अंतरमुहूर्त्तकाल प्रमाणन, तेना सात जाग करीयें. तेमांदेला प्रथम नागने विषे असावन प्रकृति बांधे, तिहां निजा अने प्रचला, ए बे दर्शनावरणीयनी प्रकृति तेना बंधनो अंत आवे, ते श्रागडे अतिविशुद्धपणे करी ए बे प्रकृति न बंधाय, शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, वेदनीय एक, मोहनीय नव, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, एवं बप्पन्न प्रकृति, बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे अने बहे, ए पांच जागें बंधाय, ए रीते अपूर्व करणना उ जोगने विषे बंध कह्यो. हवे बछे नागें जे प्रकृतिनो बंधविच्छेद होय, ते कहे. अहीं देवगतिप्रायोग्य एकत्रीश नामकर्मना
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