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कर्मस्वनामा द्वितीय कर्मग्रंथ.
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बंधमांदेलो त्रीश प्रकृतिनो बंध विछेद थाय, ते कहे बे. देवगति ने देवानुपूर्वी, ए सुरद्विक. त्रीजुं पंचेंद्रियजातिनाम, चोथुं शुभ विहायोगति तथा एक त्रसनाम, बीजं बादरनाम, त्रीजुं पर्याप्तनाम, चोथुं प्रत्येकनाम, पांचमुं स्थिरनाम, बहु शुभनाम, सातमुं सौभाग्यनाम, श्रावसुं सुस्वर नाम, नवमुं श्रादेयनाम, ए त्रस - नवक कहीयें. एवं तेर. तथा श्रदारिकशरीर ने चौदारिक अंगोपांग, ए बेनो बंध विच्छेद चोथे गुणठाणे थयो तेथी ते बे विना शेष वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर ने कार्मणशरीर ए चार शरीरनाम छाने वैक्रिय ांगोपांग तथा श्रहा - कांगोपांग, ए बे अंगोपांग एवं व प्रकृति. ए रीतें धुरथी सर्व मली अंगणीश प्रकृति यइ ॥ ए ॥
समचर निमिण जिए व, न अगुरु लहु चन बलंसि तीसंतो चरमे वीस बंधो, दास रई कुछ जय जे ॥ १० ॥
अर्थ- वीशमं समचउर के० नमचतुरस्रसंस्थान, एकवीरामुं निमिष के० निर्मानाम, बावीशमं जिए के० जिननाम, तथा वन्न के० वर्ण चतुष्क ने अगुरुलहुच के गुरुलघुचतुष्क, बलंसिती संतो के बठे जागें ए त्रीश प्रकृतिना बंधनो अंत थाय, एटले विछेद थाय, तेवारें चरमे के० बेलें, सातमे जागे बहीस बंधो के प्रकृतिनो बंध होय, त्यां दास के० हास्यमोहनीय, रई के० रतिमोहनीय, कुछ ho जुगुप्सामोहनीय, जयने के० जयमोहनीय. ए चार प्रकृतिनें बंधथी टाले | इत्यक्षरार्थः ॥ १० ॥
वीमं समचतुरस्त्र संस्थान, एकवीशभुं निर्माणनाम, बावीशमुं तीर्थकरनाम तथा वर्ण, गंध, रस, अने स्पर्श, ए वर्णचतुष्क एटले ए चार नाम कर्मनी प्रकृति, एवं ब. वी. तथा अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, उच्चासनाम, पराघातनाम, ए अगुरुलघुचतुष्क एवं सर्व मली नामकर्मनी त्रीश प्रकृतिनो बंध विच्छेद याय, जे जणी चारित्रमोहनने खपावतो तथा उपशमावतो पूर्वकरण करे, तिहां विशुद्धाध्यवसायें करी संसारमणहेतुगतिप्रायोग्य नामकर्मनो बंध विठोडे. अहीं शेष सुरगतिप्रायोग्यना
कर्मप्रकृति एकत्रीशनो बंध रह्यो हतो, तेमांहेथी एक यशः कीर्त्ति विना शेष त्रीश प्रकृतिनो बंध दे, तेथी जवज्रमणनुं बीज न करे, अतिविशुद्ध बे माटे न करे. ए रीतें as a त्री प्रकृतिनो बंधविच्छेद करें, तेवारें पूर्व करणने बेहले सातमे जागें ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, शातावेदनीय एक, तथा संज्वलनकषाय
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