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बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. एम पूर्वली पेरें तेर गुणगणे बंधस्वामित्व लेखव. एम औदारिक काययोगें बंधस्वामित्व कयु. ॥ १४ ॥ ॥ हवे ते औदारिककार्मणसाथें मिश्र काययोगी अपर्याप्तावस्थायें
जे मनुष्य तथा तिर्यंच होय, त्यां बंधवामित्व कहेजे.॥ आहारग विणोदे, चन्दससन मिति जिण पणग हीणं ॥
सासणि चन नव विणा, तिरिअ नराउ सुहुम तेर ॥१५॥ अर्थ- श्राहारगविण के श्राहारक विना उदे के उचे चउदससउ के० एकसो ने चौद प्रकृति बंधाय, अने मिडि के मिथ्यात्वे जिणपणग के जिनपंचकनी पांच प्रकृति, हीणं के हीन करीयें, तेवारें एकसो नव बांधे. तथा सासणि के साखादनगुणगणे तो चलनव के चोराणुं प्रकृति बंधाय, तिरिश्र के० तिर्यंचायु, नराउ के मनुष्यायु, सुहमतेर के सूक्ष्मादिक तेर प्रकृति, विणा के० विना चोराणुं प्र. कृति बंधाय ॥ १५ ॥
ते औदारिकमिश्रयोगी जीवने थाहारकशरीर, श्रने श्राहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृति अप्रमत्तगुणस्थानकने अनावें न बंधाय, तथा सुरायु अने नरकत्रिक ए चार प्रकृति सर्व पर्याप्ति पूर्ण कस्याविना न बंधाय, माटे ए ब प्रकृति अपर्याप्तावस्थायें न बंधाय, तेथी ज्ञान पांच, दर्शन नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, आयु बे, नामनी त्रेशठ, गोत्रनी बे श्रने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने चौद प्रकृति उँचे औदारिक कार्मण मिश्रकाययोगें वर्ततो मनुष्य तथा तिर्यंच बांधे. अहीं जे शरीरपर्याप्ति पूरी कस्याविना औदारिकयोग माने तेने मते औदारिक मिश्रयोगीने नरायु तथा तिर्यगायुनो बंध पण न घटे ? शरीरपर्याप्ति पूरी थया पली मनुष्यने अने तिर्यंचने
आयुं बंधाय तेमाटे तेना मतें एकसो ने बार प्रकृतिनो बंध उचे होय, तेमांहेथी जिननाम, सुरगति, सुरानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रीयअंगोपांग, ए पांच प्रकृति मिथ्यात्वी मनुष्य तथा तिर्यंचने अपर्याप्तावस्थायें तथाविध विशुछिने अनावे न बं. धाय, तेथी औदारिक मिश्रयोगी मिथ्यात्वीने ए पांच प्रकृतिनो बंध न पामीयें, शेष एकसो नव प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वे होय.
तेने सास्वादनगुणगणे नरायु, तिर्यगायु, ए बे प्रकृति शरीरपर्याप्ति पूरी कस्याविना न बंधाय. केमके सास्वादननावें वर्ततो अपर्याप्तावस्थायें शरीरपर्याप्ति पूरी न करे, तेथी ए बे प्रकृति न बंधाय, तथा मिथ्यात्वनो उदय नथी तेथी सूक्ष्म त्रिक,विकलत्रिक, एकेंजियजाति, थावर, श्रातप, नपुंसक, मिथ्यात्व, डैमसंस्थान, बेवई संघयण, ए
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