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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४ तेर प्रकृति न बांधे. एवं पंदर प्रकृति पूर्वोक्त एकसो ने नव मांहेथी हीन करीयें तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चोवीश, नामनी समतालीश, गोत्रनी बे छाने अंतरायनी पांच, एवं चोराएं प्रकृतिनो बंध श्रदारिकमिश्रकाययोगी ने बीजे गुणठाणे होय. तथा मिश्रगुणठाणे वर्त्ततो जीव, मरण न पामे तेथी उपजे पण नहीं तेथी अपयतावस्थायें जावी औदारिक मिश्रयोगें मिश्रगुणठाएं न कयुं ॥ १५ ॥ ॥ हवे चोथा गुणवाणानां बंधस्वामित्व कहेबे - ॥ ण चवीसाइ विणा, जिणपण जु सम्मि जोगिणो सा॥ वितिर नरा कम्मे, वि एवमादारsगि उदो ॥ १६ ॥ अर्थ - चवीसाइविषा के अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति विना जिणपण ho जिनपंचक, जुा के० युक्त, पंचोतेर प्रकृति सम्मी के० अविरति सम्यकदृष्टिगुणबांधे, जोगिणोसायं के० सयोगी गुणठाणे एक शातानो बंध तथा तिरिनराज के० तिर्यंच ने मनुष्यायु, ए वे प्रकृति विणु के० विना शेष कम्मेवि के० कार्मण काय योगीने पण दारिक मिश्रयोगीनी पेरें एवमाहारडुगिनुहो के० एमज आहारककाययोगें ने आहारक मिश्रकाययोगें पण उघ एटले कर्मस्तवमां कह्या मुजब बंध कदेवो. ॥ इत्यर्थः ॥ १६ ॥ ते चोराएं प्रकृतिमांथी अनंतानुबंधी या चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, कुखगति, नीचैर्गोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्यनाम, दुःस्वर, अनादेय, थीएद्धी त्रिक, उद्योत, तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, ए चोवीश प्रकृति अनंतानुबंधीयाकषायने उदये बंधाय. ते उदय चोथे गुणगणे न होय, तेथी न बंधाय, तेथी शेष सीत्तेर प्रकृति रही तेमध्यें विशुकाध्यवसायें करी पांच प्रकृतिनो बंध होय, तेवारें ज्ञाननी पांच, दर्शननी ब, वेदनयनी बे, मोहनीयनी उंगणीश, नामनी सामत्रीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, ए पंचोतेर प्रकृति बंधाय. दवे ते पांच प्रकृतिनां नाम कहेबे जिननाम, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, ए पांच प्रकृति, सम्यक्त्वप्रत्ययें बांधे. तेमाटे ते लतां अविरतिसम्यकदृष्टि गुणठाणे पंच्चोतेरनो बंध होय. छाहींयां सिद्धांतमतें वैयिलब्धि तथा श्राहारकलब्धि वैक्रियादिक शरीर करतां श्रदारिक मिश्रयोग मान्यो, पण ते अहींयां विवदयो नहीं, तेथी प्रमत्त तथा देशविर तिगुणापानो बंध न कह्यो. तथा दारिक मिश्रकाययोगना स्वामी मनुष्य अने तिर्यंच बे तेने चोथे गुणगणे सीतेर तथा एकोतेर प्रकृतिनो बंध कह्यो. नरद्विक, औदारिकद्विक, प्रथमसं ५७ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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