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________________ ४५० बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. घयण, ए पांच प्रकृतिनो बंधस्वामी, चोथे गुणठाणे वर्त्ततो कोण श्रदारिक मिश्र - योगी न पामे ? तथा अनंतानुबंध चोवीश यादें देश, अहींयां चोवीश श्रागल यदि शब्द को बे तेथे श्रादिशब्दथी बीजी के प्रकृति शेष लेवी, तेथी जाणीयें यें, जे ए पांच प्रकृति, आदिशब्दथकी लेवी तेथी मनुष्य तिर्यंचने त्रीजे चोथे गुठाणे पण एकत्री विना शेष सीत्तेर प्रकृति कही, तेम अहींश्रां नरायु अने तिर्यगायु एबे पूर्वे टाली बे तेथी शेष उगणत्रीश प्रकृति चौराणुंमांदेथी काढी यें छाने जिनपंचक घालतां सीत्तेर प्रकृतिनो बंध होय एम संजवे बे. पढी जेम बहुश्रुत कड़े, ते प्रमाण बे. तथा सयोगी गुणठाणे केवली केवलसमुद्घात करे, त्यां बीजे, बहे अने सातमे, ए समयें औदारिक मिश्रयोग होय तेने योग प्रत्ययि एक शातावेदनीय प्र कृतिबंध होय, मिथ्यात्व अविरतिय तथा कषायने जावें शेष प्रकृति न बंधाय एम औदारिक मिश्रयोगीनी पेरें कार्मणयोगीनुं बंधस्वामिवत्व पण जाणवुं. परं एटलुं विशेष जे कार्मणकाययोग परजवथी यवतां एक, तथा बे तथा त्रण समय लगें विग्रहगतियें होय तथा तेरमे गुणठाणे व समयनो केवली समुद्घात करतां त्रीजे, चोथे ने पांचमे, ए त्रण समय आत्मप्रदेशें करी सर्व लोक पूरे, तेवारें कार्मणकाययोग त्यां होय. आयुबंध न होय, एने गुणठाएं पहेनुं, बीजं, चोयुं अने तेरमुं होय तेथी त्यां तिर्यगायु, नरायु, ए बे प्रकृति टाली शेष दारिक मिश्रयोगीनी पेरें लेवुं, एटले मूलौघ एकसो ने वीश तेमांहेश्री आहारबक्क तथा ए वे आयु, एवं आठ प्रकृति हीन करतां शेष एकसो ने बार प्रकृतिनो घे बंध ते जिनपंचकविना शेष एकसो ने सात मिथ्यात्वें बांधे ने सूक्ष्मादिक तेर प्रकृति हीन चोराएं साखादनें बांधे, ते अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति हीन अने जिनपंचक युक्त करतां पंचोतेर प्रकृति चोथे गुणठाणे बांधे, अने तेरमे गुणठाणे एक शातानो बंध कार्मणकाययोगें होय. एवी रीतें एक आहारककाययोग, बीजो आहारक मिश्रकाययोग, ए बे योगें उघ कहेतां बीजा कर्मस्तवमध्ये जे प्रमत्त गुणठाणें त्रेशव प्रकृतिनो बंध कह्यो ते लेवो. जे ए योग चौद पूर्वधर जेवारें श्राहारकशरीर करे, त्यां होय. त्यां लब्धि प्रयुंजता प्रमत्त होय. तथा श्राहारकयोगें अप्रमत्त गुणवाएं मानतां थकां त्रेशहमांहेथी व प्रकृति काढीने एक सुरायु जेलीयें तेवारें अठावन्न प्रकृतिनो बंध होय, माटे पंचसंग्र दने मतें आहारक शरीर करीने चाले तेवारें त्रेशव अथवा सत्तावन अथवा श्रावन अथवा गणशात प्रकृति बांधे, त्रेसठ प्रकृतिनो बंध कह्यो ते लेवो "सगवन्ना तेवहि Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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