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बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ.
४५१ बंधंति श्राहारउनएसु" ए पंचसंग्रहमध्ये कह्यो जे तेथी बन्ने गुणगणे श्राहारकशरीरने सत्तावन्न प्रकृतिनो बंध होय. अस्थिरहिक, अयश, अयश अशाता, परति श्रने शोक, ए प्रकृति विशुद्ध नणी न बंधाय. अने थाहारकमिश्रयोगें त्रेशठ प्र. कृति बंधाय. ए प्रारंजवेलायें औदारिकसाथें मिश्र होय. ॥ १६ ॥
सुरउँदो वेगवे, तिरिअ नरान रदिअ तम्मिस्से ॥ वेअ तिगा इम बिअतिअ, कसाय नव 5 चल पंचगुणा ॥१७॥ अर्थ-वेउवे के वैक्रियकाययोगने सुरहो के देवतानी पेरें बंध कहेवो. उ. एकसो चार, मिथ्यात्वे एकसो ने त्रण. इत्यादिक. तम्मिस्से के तेमज वैक्रिय मिश्रकाययोगीने तिरियनरामरहि के तिर्यंचायु अने मनुष्यायु ए बे प्रकृतिथी रहित वैकियनी पेरें कहेवं. हवे वेदादिकमार्गणायें बंध कहेजे. वेअतिग के वेद त्रणेने प्र. थम नव के नव गुणगणां होय, आश्म के० श्रादिम कषाय ते अनंतानुबंधी चार कषायवंतने 5 के धुरलां बे, गुणगणां होय. विश्र के बीजा अप्रत्याख्यानीश्रा चार कषायवंतने चज के० धुरलां चार गुणगणां होय. तिथ के त्रीजा प्रत्याख्यानीथा कषायवंतने पंचगुणा के पांच गुणगणां होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ १७ ॥
देवगतिनी पेरें बंधस्वामित्व वैक्रिय काययोगें ले. अहीं सहेजतो वैक्रिययोग देवता तथा नारकीनी अपेक्षायें लीधो, तेणे मनुष्य अने तिर्यंचने उत्तरवैक्रिय करतां वैक्रिययोग होय, त्यां अधिक गुणगणां होय. तथा अधिक प्रकृति बांधे ते पूषण न लेखवq, तेणे मूलौघ एकसो ने वीश प्रकृतिमाहेथी सुरादिक शोल प्रकृति वि. ना उ एकसो ने चार प्रकृतिनो बंध जाणवो. तेमांथी जिननाम हीन करतां मिथ्यात्वे एकसोने त्रणनो बंध, तेमांथी नपुंसकादिक चार, एकेंजिय, थावर, थातप, ए सात प्रकृति विना सास्वादने बन्नुनो बंध. तेमांथी अनंतानुबंध्यादिक बबीश प्रकृति हीन करतां मिों सीत्तेरनो बंध, तेने जिननाम तथा मनुष्यायु सहित करतां शविरतिगुणगणे बहोंतेर प्रकृति बंधाय.
एम वैक्रिययोगनी पेरें वैक्रिय मिश्रयोगें पण बंधस्वामित्व जाणवू,पण एटखं विशेष जे अहींयां मिश्रगुणगणुं न संजवे, तेथी जेनणी देवता नारकीने अपर्याप्तावस्थायें कार्मणसाथे मिश्रव क्रिययोग ते लीधो. त्यां मिश्रगुणगणुं न होय. शेष त्रण गुणगणे पण तिर्यगायु अने मनुष्यायु ए बे आयु, न बधि. लब्धि अपर्याप्तो देवता तथा ना. रकी न होय तेथी अपर्याप्तावस्थायें श्रायु न बांधे. तेवारें ए बे श्रायु, सुरधिक, वै. क्रियटिक, सुरायु, थाहारकछिक, नरकत्रिक, सूक्ष्म त्रिक, विकलत्रिक, ए अढार प्रकृति विना शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बबीश, ना.
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