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________________ ४५२ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. मनी त्रेपन, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने बे प्रकृतिनो बंध उचें जाणवो, तेने जिननाम हीन करतां मिथ्यात्वें एकसो एक बंधाय. तेमांथी एकेंद्रियजाति थावर, तप, नपुंसक, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडसंस्थान, बेवडुं संघयण, ए सात प्रकृति हीन करतां सास्वादने चोराएं प्रकृति बंधाय. तेमांथी अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति हीन करी जिननाम सहित करतां एकोतेरनो बंध चोथे गुणठाणे जावो. एने शेष गुणवाणां न संभवे तथा यहींयां लब्धिप्रत्ययि ए पर्याप्तो वैक्रिय मिश्र न लेखवं. तेथी देशविरति घने प्रमत्त ए वे गुणगणां न कां. एटले पूर्वला सत्तर मार्गणा द्वारमा ए कायमार्गणा जेलवतां अढार मार्गणाद्वारें बंधस्वामित्व क. हवे ग्रंथगौरव टालवा जणी शेष चुम्मालीश मार्गणाद्वारें गुणगणानी संख्या कहीने जिहां जेटलां गुणगणां होय, तिहां तेटलां गुणस्थानकनो बंध कर्मस्तव जोइ कहेवो. त्यां स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, ए त्रण वेदमार्गाद्वारें मिथ्यात्वा दिक नव गुणठापां होय. तिहां उधें एकसो ने वीशनो बंध, मिथ्यात्वें एकसो ने सत्तर, साखादने एकसो एक, मिश्र चम्मोतेर, श्रविरतिसम्यकदृष्टियें सत्योतेर, देशविर तियें शडशव, प्रमत्तें त्रेशर, अप्रमतें जंगणशाव, अठावन्न, अपूर्वगुणठाणे अठावन्न, उपन्न, बबीश, बादरसं परायें बावीश, एकवीरा, तेवार पढी वेदोदय टले. अहींयां वेदादिक कहेतां वेदोदयवंत जीव द्रव्यपर्यायनी अभेदविवक्षायें लीधां. एवं एकवीरा मार्गपाठारें बंधस्वामित्व क. हवे कषायमार्गणायें बंधस्वामित्व कहे . प्रथम कषाय अनंतानुबंधी या चार, त्यां मिथ्यात्व छाने सास्वादन, ए बे गुणगणां होय ते मध्ये उधे एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध. अनंतानुबंधीयाने उदयें सम्यक्त्व छाने चारित्र ए वे न होय तेथी तत्प्रायोग्य जिननाम तथा श्राहारकद्विक ए त्र प्र कृति न बंधाय. मोटे एकसोने सत्तर प्रकृति बंधाय तथा बीजा कषाय प्रत्याख्यानावरणनी प्रकृति चार, त्यां मिथ्यात्वादिक चार गुणarvi होय. त्यां घें एकसो ने ढार प्रकृति बंधाय, जे जणी ए चार, गुणठाणाने उदयें चारित्र न होय. तेथी आहारकद्विक न बंधायाने मिथ्यायें जिननाम हीन एकसो सत्तर बंधाय, सास्वादने एकसो एक, मिझें चम्मोतेर, ने अविरतियें सत्त्योतेर बंधाय. श्रीजा प्रत्याख्यानावरण कषाय चार. त्यां मिथ्यात्वादिक पांच गुणगणां होय तेमध्यें Ada एकसो ने ढार, मिथ्यात्वें एकसो सत्तर, सास्वादनें एकसो एक, मिश्र चम्मोतेर, विर तियें सत्योतेर, देशविरतियें शडशह, यहीं प्रकृतिनी संख्या कर्मस्तवथी लेवी. हिंयां कषाय शब्दे कषायोदयवंत जीव लेवा. त्यां गुणस्थानक संजवे. Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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