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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४५३ संजलण तिगे नव दस, लोहे चन अज उति अनाणतिगे॥ बारस अचकु चकुसु, पढमा अहखाइ चरिम चक ॥२७॥ अर्थ- संजलणतिगे के संज्वलनत्रिक, नव के० नवमा गुणगणा सुधी दसलोदे के संज्वलनो लोन, दशमा गुणगणा सुधी चउ के चार गुणगणां अजश के अविरतिमार्गणायें होय, उतिअनाण तिगे के बीजं अथवा त्रीजुं गुणगणुं, अज्ञानत्रिकने होय. बारसअचरकुचरकुसुपढमा के० अचकुदर्शन, चतुदर्शन मार्गणाने विषे पहेला बार गुणगणां होय. अने अहखाश्च रिमचऊ के यथाख्यातचारित्रमार्गणा छारें, बेहेलां चार गुणगणां होय ॥ इत्यदरार्थः॥ १७ ॥ अहीं जीवऽव्ये कषाय पर्यायनो उपचार. संज्वलना क्रोध, मान ने माया, एत्रण संज्वलना कषायोदयवंतने मिथ्यात्वादिक नव गुणगणां होय, त्यांचे एकसो वीश, मिथ्यात्वे एकसो ने सत्तर, सास्वादने एकसो एक, मि2 चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देशविरतियें शडश, प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्तें जंगणशाव, तथा श्रापमा निवृत्तियें अहावन, बपन्न अने बवीश, अनिवृत्तियें क्रोधे बावीश, एकवीस, वीश; अने माने बावीश, एकवीश, वीश ने जंगणीश; मायायें बावीश, एकवीश, वीश, अंगणीश ने अढार, प्रकृतिनो बंध जाणवो. संज्वलनलोनें मिथ्यात्वश्री मामीने सूक्ष्मसंपराय लगें दश गुणगणां होय, जे जणी दशमा गुणगणा लगें संज्वलनना लोजनो उदय होय, तेथी औदयिकनिष्पन्ननामें संज्वलनलोजोदयवंत जीव, तेने उचे एकसो अढार, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर, इत्यादिक यावत् सूक्ष्मसंपरायें सत्तर प्रकृतिनो बंध जाणवो. एवं पच्चीश. ___ संयममार्गणामध्ये एक अविरतिमार्गणायें प्रथम चार गुणगणां होय, त्यां श्राहारकहिक हीन उधे एकसो अढार, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर, सास्वादने एकसो एक, मिों चम्मोतेर, अने अविरतियें सत्त्योतेरनो बंध जाणवो. अहीं सम्यक्त्वप्रत्ययें जिननामबंधाय माटे. एवं बबीश मार्गणाधारें बंधस्वामित्व कह्यु. ज्ञानमार्गणामध्ये त्रण अज्ञानमार्गणाधार जे जीव मिथ्यात्वथकी मिश्र गुणवाणे जाय तेने मिथ्यात्वनो अंश अधिक होय, तेथी मिों अज्ञान लेखवतां अज्ञानने त्रण गुणगणां होय, अने जे जीव सम्यक्त्वश्री मिश्रगुणगणे श्रावे तेने सम्यक्त्वांश अधिक होय, ते नणी मिझें ज्ञान लेखवतां अज्ञानने पहेलां बे गुणगणां होय. एम को श्राचार्य कहे के, त्रण अज्ञाने त्रण गुणगणां होय श्रने कोइ कहेले के त्रण अज्ञानने बे गुणगणां होय, त्यां उघं एकसो सत्तर, मिथ्यात्वे एकसो ने सत्तर, सास्वादने एकसो एक थने मिधे चम्मोतेर प्रकृतिनो बंध होय. एवं उंगणत्रीश. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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