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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. दर्शनमार्गणामध्यें चक्कुदर्शन ने चक्कुदर्शन, ए वे मार्गणा द्वारें मिथ्यात्वादिकथी क्षीणमोहात बार गुणवाणां होय. अहींयां दर्शन शब्दे श्रनेदोपचारें दर्शनवंत जीव लेवा. ए क्षायोपशमिकनाम तेने बार गुणगणां होय. त्यां उघें एकसो वीश, मिथ्यात्वें एकसो सत्तर, सास्वादनें एकशो एक, मिलें चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देशविर तियें शमशव, प्रमत्तें त्रेशठ, श्रप्रमत्तें उगणशाव, अठावन, निवृत्तियें अठावन्न, उपन्न, बवीश, अनिवृतियें एकवीश, बावीश, वीश, जंगणीश, खढार, सूक्ष्मसंपरायें सत्तर, उपशांतमोहें एक, क्षीणमोहें एक, प्रकृतिनो बंध जाणवो. ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयना क्षयोपशमथी चक्कुदर्शन, अचकुदर्शन बार गुणठाणां लगें होय. जेजणी आगले गुणठाणें इंद्रियजन्य ज्ञान दर्शन न होय, अतींद्रिय होय. एवं एकत्रीश मार्गणा द्वारें बंधस्वामित्व कं. ४८४ संयममार्गणामध्ये एक यथाख्यात चारित्रे एटले यथाख्यातचारित्रवंत जीवने चरमच के० बेहेला उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगी ने योगी, ए चार गुणवगणां होय, तेमध्यें पलां त्रण गुणठाणे एक शातावेदनीयनो बंध होय, अने अयोगी गुणठाणे बंधक होय, जेमाटे त्यां योगाश्रव नथी तेजणी अगी चारमानुं पशमिक नाम बे, शेषनुं कायक नाम बे. एवं बत्रीश मार्गणाद्वार थयां ॥ १८ ॥ मणनाणी सग जयाइ, समइा बेच् चन पुन्नि परिदारो ॥ केवल पुगि दो चरिमा, अजयाइ नवमइसु दि ङगे ॥ १९ ॥ अर्थ- मणनाणी के० मनः पर्यवज्ञानीने सगजयाइ के० प्रमत्तादिकथीमांनी सात गुगां होय, समय के० सामायिक छाने वेदोपस्थापनीय चारित्रने च के० नवमा सुधी चार गुणवाणां होय छाने परिहारो के० परिहार विशुद्धि चारि पुन्नि के बहु ने सातमुं, ए बे गुणवाणां दोय, केवलडुगि के० केवलज्ञानी केवलदर्शनी ए बेने दोचरिमा के० बेहेलां वे गुणवाणां होय. मश्सु के० मतिज्ञानी श्रुतज्ञानीने विषे तथा उदिडुगे के० अवधिज्ञानी अवधिदर्शनी ए चारने विषे जया नवम के० श्रविरतिसम्यक् ष्टिथी क्षीणमोह लगें नव गुणवाणां होय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ १५ ॥ ज्ञानमार्गणामध्ये मनःपर्यव ज्ञानवंतने संयतादिक सर्वविरति प्रमत्तादिक सात गुणगणां दोय, त्यां बंध, उघें पांव प्रकृतिनो होय, जे जणी त्रेशव, प्रमत्तनी प्रकृतिमांहे आहारगडुग लतां उघें पांशठ, प्रमत्ते त्रेशठ, अप्रमत्तें उगणशाव, अठावन्न, निवृत्तियें घावन, बपन्न, बवीश, छानिवृत्तियें बावीश, एकवीरा, वीश, जंगणीश ने - ढार, सूक्ष्मसंपरायें सत्तर उपशांतमोहें एक, क्षीणमोहें एक, सात गुणगणां होय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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