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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ՍԱԱ ए क्षायोपशमिकनाम चारित्रमार्गणामध्यें सामायिक चारित्रे तथा बेदोपस्थापनीय चारित्रे संयतादिक प्रमत्तादिक चार गुणठाणां होय, त्यां श्राहारकद्विक, सहित उ बंध पांशठ, प्रमतें त्रेसठ, अप्रमत्तें उगणशाव, अट्ठावन्न, निवृत्तियें अठावन्न, बपन्न, श, निवृत्तियें बावीश, एकवीरा, वीश, जंगलीश ने अढार. ए क्षायोपशमिक जावें अनेदें चारित्रवंत परिहारविशुद्धि चारित्रे वर्त्ततां जीवने प्रमत्त, अप्रमत्त, ए गुणठाणां होय. त्यां उघें बंध पांशठ, आहारकद्विक बांधे, पण वेदे नहीं. जे जणी एने चौद पूर्व, संपूर्ण न होय, तेथी आहारक शरीर न करे, माटे प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्तें श्रावन्ननो बंध. ए क्षायोपशमिकनाम ए बत्री शमं मार्गणा द्वार. केवलज्ञान ने केवलदर्शन ए बे मार्गणाद्वारें एटले एतत्कायिक निष्पन्न केवल - ज्ञानी केवलदर्शनी जीवने चरम कहेतां बेहेलां बे गुणगणां होय, त्यां सयोगी ruary योगप्रत्ययें एक शातावेदनीय बांधे. अने योगी प्रबंधक बे. एवं ३८. ज्ञानमार्गणामध्यें मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान तथा अवधिडुग के० अवधिज्ञान ने अवधिदर्शन, ए चार, क्षायोपशमिक निष्पन्न भेदे जीवनाम त्यां असंयतादिक - विरतिसम्यकदृष्टि मांगीने क्षीणमोइलगें नव गुणवाणां होय त्यां वें बंध जंगणाएंशी, केमके विरतियें सत्योतेर बे ते मांहे श्राहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृति घालियें तेवारें उधें उगणाएंशी होय, अविरतियें सत्योतेर देशविर तियें शमशव, प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्तें उगणशाव, अद्वावन्न, निवृत्तियें अठावन्न, उपन्न अने वीश, निवृत्तियें बावीश, एकवीश, वीश, अंगणी अने अढार; सूक्ष्मसंपरायें सत्तर उपशांत मोहें एक, क्षीणमोहें एक, ए नव गुणवाणां होय तेनो बंध कह्यो ॥ १९ ॥ एवं तालीश मार्गणाद्वारे बंध को. नवसमि च वेगि, खइए इक्कार मित्र तिमि देसे ॥ सुमि सवाणं तेरस, आहारग नि नि गुणोहो ॥ २० ॥ अर्थ- मनवसमि के० चोथा थकी अगीआरमा सुधी आठ गुणठाणा उपशमसम्यक्वीने होय. चवेागी के० चोथाथी सातमा सुधी चार गुणठाणां वेदक क्षायोपश मिक सम्यक्त्वने होय. खइएइक्कार के० कायिकसम्यक्त्वीने चोथाथी चौदमा लगें अगी र गुणा होय. मिठतिगि के० मिथ्वात्व, सास्वादन छाने मिश्र, देसे के० देशविरति, सुदुमि के० सूक्ष्मसंपराय चारित्र एटलाने सवाणं के० पोतपोताने नामे एकेक गुठाणं होय. तेरस आहारग के० आहार करे ते व्याहारकमार्गणा तेने सयोगी लगें तेर गुणवाां होय, ए सर्व पूर्वे कां. तेने निश्रनिगुण के० श्रापश्रापणे गुणठाणे प्रकृतिनो बंध हो के वें एटले कर्मस्तवें कह्यो ते लेवो. ॥ इत्य दरार्थः ॥ २० ॥ 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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