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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४० प्रकृति तथा मनुष्यत्रिक, उच्चैर्गोत्र, एवं पंदर प्रकृति न बंधाय. जे जणी तेउ अने वायुमध्येथी देवता,नारकी तथा मनुष्य न उपजे, तेथी तत्प्रायोग्य देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियधिक, जिननाम, थाहारकछिक, मनुष्यत्रिक, अने उच्चैर्गोत्र, एवं पंदर प्रकृति न बांधे, तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, आयुनी एक, नामनी बप्पन्न, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने पांच प्रकृति बांधे, ए तेज श्रने वाज ए बे एकज तिर्यंचगतिमा अवतरे, तेथी तिर्यंचमध्ये तो जवप्रत्ययें एक नीचैर्गोत्रज उदय होय, तेथी उच्चैर्गोत्र पण न बांधे, ए बेमांहे सास्वादन गुणगणुं न होय जे नणी सम्यक्त्व वमतो पण ए बेमांहे को अवतरे नहीं. एम इजियमार्गणा तथा कायमार्गणा कही; एटले पूर्व गतिमार्गणानां चार छार कहेला डे अने इंघिय तथा कायनां अगीयार घार, एम बधां मली पंदर मार्गणाधारे बंधस्वामित्वपणुं कर्तुं. हवे योगमार्गणायें बंधस्वामित्व कहे. त्यां एक सत्यमनोयोग, बीजो असत्यमनोयोग,त्रीजो सत्यामृषामनोयोग, चोथो असत्यामृषामनोयोग, ए चार मनोयोग ,अने सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, सत्यमृषावचनयोग, असत्यमृषावचनयोग, ए चार वचनयोग , ए श्राठे योग पहेला गुणगणाधी मामीने बारमा क्षीणमोद गुणगणां लगें बे. तेथी बीजे कर्मग्रंथे जे गुणगणाथाश्रयि मूलबंध कह्यो एटले उचे एकसो ने वीश प्रकृतिनो बंध तथा जिननाम अने थाहारगगे हीन, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर प्ररुतिनो बंध, सास्वादने एकसो ने एकनो बंध, मिों चमोत्तेरनो बंध,अविरतियें सत्त्यो. तेरनो बंध, देश विरतियें शमशनो बंध, प्रमत्तें त्रेशउनो बंध, एम बारमा गुणगणालगें पूर्वोक्त रीतें बंधस्वामित्व जाणवू. ए पाठ योगें बार गुणगणां होय. बे मनना, अने बे वचनना योग, तेरमे गुणगणे होय. ए रीतें मन तथा वचनना आठ योगने विषे बंध करो. एटले सत्तर मार्गणाधार थयां. हवे सात काययोगें बंध कहे. ते सात काययोगमध्ये औदारिककाययोगें तो म. नुष्यनी पेरें बंधस्वामित्व जाणवं. जे जणी औदारिक शरीर मनुष्य ने तिर्यच विना न होय तेमांहे पण अधिक गुणस्थानके अधिक प्रकृतिना बंधस्वामी मनुष्य डे, तेथी अहीं मनुष्यनो नांगोज कह्यो एटले उचे एकसो वीश प्रकृतिनो बंध, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर,सास्वादने एकसो ने एक, तेमांथी सुरायु तथा अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश, एवं बत्रीश प्रकृति हीन करतां मिर्को गणोतेर, ते वली सुरायु तथा जिननाम सहित अविरतियें एकोतेर बांधे अने देशविर तियें शडशठ, प्रमत्तें त्रेशन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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