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________________ ४४६ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रथं. ॥ अपर्याप्ता एकेंजिय, पृथ्वी, अप्, वनस्पति, विकलत्रय बंधस्वामित्व यंत्रकम् ॥ अपर्याप्ताएकेंजियादिक बंधस्वामित्व यंत्रकमिदम् मूलप्रकृति. बंधणप्रकृति. अवंधप्रकृति. झानावरणीय. ' | विवेदप्रकृति. दर्शनावरणीय. वेदनीय. आयुःकर्म. | मोहनीय. गोत्रकर्म. - | अंतरायकर्म. | 66 नामकर्म. | " F - | उघं. १०ए | OSO मिथ्यात्वे. १०५ ११ Su सास्वादनें. | ९६ ३४ . ५ ए ३ २४ २ ५ २ ५ ७० उहु पणिंदि तसेगइ, तसे जिणिकार नरतिगुच्च विणा ॥ मणवय जोगे उहो, उरले नरजंगु तम्मिस्से ॥ १४ ॥ अर्थ- उंहु के उघबंध, पणिं दि के० पंचेंजियमार्गणायें, तसे के त्रसकायमार्गणायें उ, मिथ्यात्वे अनेसास्वादनादिकें एम मूल बंधस्वामित्व जाणवू. तथा गश्तसे के० गतित्रस ते तेउकाय मार्गणायें जिणिकार नरतिगुच्चविणा के० जिनादिक श्रगीधार प्रकृति तथा मनुष्य त्रिक, उच्चैर्गोत्र, ए पंदर प्रकृति विना एकसो पांच प्रकृतिनो बंध जाणवो, मणवयजोगेठहो के चार मनोयोगमार्गणायें, चार वचनयोगमार्गणायें, मूल खेवो. उरले के औदारिक औदारिककाययोगें नरनंग के मनुष्यना बंधनी पेरे बंधनो नांगो लेवो, तम्मिस्से के तेमज आगल औदारिकमिश्रयोगे पण लेवो. इत्यदरार्थः१४ माताना उदरमांहे उपजे, ते वेलायें औदारिककाय पूरी न थाय. त्यां लगें औदारिकमिश्र होय, तेने एकसो ने चौद प्रकृतिनो बंध होय, पनी उघ के जे बीजे कर्मस्तवें सर्व जीवनी अपेक्षायें जे गुणगणे बंध कह्यो, तेहिज जाणवो. एटले उधे एकसोने वीश, मिथ्यात्वे एकसो ने सत्तर, इत्यादिक चौद गुणगणां पर्यंत बंधस्वामित्व जे प्रमाणे सर्व जीवनी अपेक्षायें कर्मस्तवमां कडं जे ते प्रमाणे पंचेंजिय मार्गणाझारें अने त्रसकायमार्गणाधारें बंधखामित्व जाणी लेवु. एवं तेर.. हवे गति त्रस एटले जोपण स्थावरनामकर्मना उदयथी लब्धिस्थावर बे, तो पण चालवाने साधर्मे त्रस होय एटले तेउ, अने वाउ, ए बे काय ऊर्ध्वगमन तिर्यग्गमन करे, ते माटे एने गतित्रस कहीये, ते गतित्रसने विषे जिनादिक अगीवार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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