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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४५ पर्याप्तावस्थायें सम्यक्त्व नथी, तो तेथी वमतां सास्वादनें जावपणे केम होय ? तेणे ते सास्वादन गुणठाणे वर्त्ततां शरीरपर्याप्ति पूरी न करे अने शरीरइंद्रियपर्याप्ति पूरी कस्याविना करण पर्याप्ता, परजवायु न बांधे तेथी सुरायु अने नरकायु, ए बे प्रकृति जवप्रत्ययें नथी, छाने तिर्यगायु तथा मनुष्यायु ए वे पण करण अपर्याप्ता न बांधे, ते या विना मूलप्रकृति सात अने उत्तर प्रकृति चोराएं बांधे, जे जणी तनुपर्याप्तिकाल ए आवलि अधिक अंतर मुहूर्त्त प्रमाण सास्वादन कालस्तोक, ते जणी विकलें प्रियमध्यें मनुष्य छाने तिर्यंच सम्यक्त्व वमतो यावे. कोइएक श्र चार्य कड़े बे के सास्वादनगुणठाएं शरीरपर्याप्ति पूर्ण थया पढी रहे, तेवारें बे श्रायु बांधे, वीजा थाचार्य वली एम कहे बे के शरीरपर्याप्ति पूरी थया पढी रहे, तेवारें बे बांधे, बीजा आचार्य वली एम कहे बे के शरीरपर्याप्ति पूरी यया पढी साखादनगुणठाणुं रहे, तेवारें बे श्रायु न बांधे. कर्मग्रंथना टबाकार श्रीजीववीजयजी माहाराजे एम लख्युं बे के सास्वादन गुणठाणे सूक्ष्म त्रिकादिकथी बेवठा सुधी तेर प्रकृति, एकसो नवमांथी उठी कीधे थके उन् बांधे, एने बेज गुणवाणां होय. छाने केटलाएक आचार्य कहेबे के तिर्यंचायु छाने म नुष्यायु विना चोराएं बांधे, जे जणी, एकेंद्रियादिक सास्वादनवंत थको शरीरपर्याप्त पण पूरी न करी शके तो आयु केम बांधे ? तेवारें त्यां पहेले मतें शरीरपर्याप्ति पूरी पढी पण सास्वादन रहे, त्यां श्रायु बांधे, तेवारें ते बन्नुं प्रकृति बांधे ने बीजे तें तो शरीरपर्या तिथी श्रागलज सास्वादन जाय तो श्रायु क्यांथी बांधे, तेवारें ते चोरापुंज बांधे, ए बे मत जाणवा. एमांहे चोरानो मत खरो जासे बे, जे जणी एकेंद्रियादिकनुं जघन्यायु पण बसो उपन्न यावलिकानो कुल्लक जव होय, ते श्रायुना जाग गये के एकसो ने एकोतेरमी श्रावलिकायें श्रायु बंधाय, छाने सास्वादनपएं तो उत्कृष्टुं पण यावलिकानुं होय, तेटलामांहे परजवनुं श्रायु केम बंधाय ? ते माटे. चोराज बांधे. ए मत शुद्ध जणाय वे छाने ग्रंथकारें बन्नुं कही तेतो कोण जाणे शे शयें कही हशे ? तथा श्रागलें श्रदारिक मिश्रने पण सास्वादने श्रायुबंध निवायो बे "सास चिनवइविणा, नरतिरियाऊ सुदुमतेर " ए गाथायें निवारयो बेता ते श्रींयां पण एमज जोइयें, केमके ते अने ए सास्वादन, एकज बे. ॥ १३ ॥ एटले इंद्रियाने काय मार्गणा मांहेला सातद्वारे बंधस्वामित्व कयुं. एवं श्रगी आर मार्गणा द्वार थयां. Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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