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बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ.
॥ श्राणतादिचतुष्टये तथा ग्रैवेयकनवके बंधस्वामित्वयंत्रक मिदम् ॥
तादिचतुष्टये तथा ग्रैवेयकनव के.
बंधप्रकृति.
बंधप्रकृति.
विच्छेदप्रकृतिः
उघें.
मिथ्यात्वें.
सास्वादनें.
मिश्र.
विरतें. ७२ ४०
ज्ञानावरणीय.
// दर्शनावरणीय
वेदनीय कर्म.
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मोहनीय कर्म.
श्रायुकर्म. नामकर्म.
अंत रायकर्म. गोत्रकर्म.
मूलप्रकृति.
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बनवइ सासणि विष्णु सुदु, म तेर केइ पुए बिंति चडनवइ ॥ तिरिच्य नराऊदि विणा, तणु पत्तिं न जंति जर्ज ॥ १३ ॥
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अर्थ - विणुसुदुमतेर के० सूक्ष्मादिक तेर प्रकृतिना बंध विना बनवास ho प्रकृति सास्वादन गुणठाणे बांधे, केइ के० कोइएक आचार्य पुण के० वली - वीँ रीतें बिंति के० कदे बे के तिरिनराऊहिविषा के० अपर्याप्ता तिर्यंचनुं श्रायु मनुष्यायु, ए वे प्रकृति विना चडनवइ के० चोराएं प्रकृति, सास्वादनें बांधे, जेमाटे तणुपत्तिं के० शरीरपर्याति नजं तिजर्ज के० सास्वादनपणे पूरी न करे तेमाटे. १३
जवनपति, व्यंतर, छाने ज्योतिषी, ए त्रण; सौधर्म, ईशान, ए वे वैमानिक, देवता मिथ्यात्व प्रत्यें एकेंद्रिय प्रायोग्य श्रायु बांधी, पढी वली अध्यवसाय विशुद्ध सम्यक्त्व पामी मरणसमयें सम्यक्त्व वमतो, पृथिवी, छाप, वनस्पती, ए एकै प्रियमांहे अवतरे, तेने शरीरपर्याप्ति पूर्ण कर न होय तेथी पहेलां सास्वादन होय, तेने बन्नु प्रकृतिनो बंध होय. जे जणी सूक्ष्म त्रिक, विकलजातित्रिक, एकेंद्रियजाति, थावर, श्रातप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंमसंस्थान, सेवार्त्तसंघयण, ए तेर प्रकृति मिथ्यात्व विना न बंधाय, तेथी अहींयां एकसो ने नव मांहेथी तेर टालतां शेष बन्नु प्रकृति सास्वादनें बंधाय. अहींथां कोइएक आचार्य श्रीचंद्रसूरि प्रमुख एकैंडियादिक साते मार्गणाद्वारे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चोवीश, नामनी सडतालीश, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एवं चोराणुं प्रकृतिबंधाय एवं कदे बे, जे जणी ए सात मार्गणायें करण पर्याप्तावस्थायेंज सास्वादनपणुं हुंते पण
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