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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४३ एकसो ने एक उचे बांधे तेने जिननाम हीन करीयें, तेवारें मिथ्यात्वें सो प्रकृति बांधे. तेमाथी नपुंसकादिक चतुष्क हीन करतां सास्वादने बन्न प्रकृति बांधे. तेमांदेथी अनंतानुबंध्यादिक बबीश प्रकृति टले, तेवारें शेष सीत्तेर प्रकृति मिश्रगुणगणे बांधे, तेने जिननाम तथा नरायु सहित करीयें, तेवारें बहोंतेर प्रकृति, चोथे गुणगणे बांधे. एना हेतु पूर्वनी परें लेवा. थाणत, प्राणत, श्रारण अने श्रच्युत, ए चार देवलोक तथा नउ, सुजन, सुजात, सौमनस्य, प्रियदर्शन, सुदर्शन, अमोघ, सुप्रतिबद्ध, अने यशोधर, ए नव अवेयक तथा पांच अनुत्तर विमान, एवं चौद स्थानकें तथा अढार स्थानकें उद्योतनाम तिर्यंचत्रिक, ए चार प्रकृति न बांधे, जे जणी त्यांनो श्रावेलो जीव, मनुष्यज थाय, पण तिर्यंच न थाय, तेमाटे तत्प्रा. योग्य ए चार प्रकृति न बंधाय तेमादे मूलौघमाहेथी सुरहिकाहिक उंगणीश प्रकृति अने ए चार प्रकृति, एवं त्रेवीश प्रकृति टले, तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, श्रायुनी एक, नामनी समतालीश, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, एवं सत्ताणुं प्रकृतिनो बंध उचे होय तेने जिननाम हीन करतां मिथ्यात्वे बन्नु प्रकृतिनो बंध शेष पूर्वली पेरें जाणवो. तथा अनुत्तरविमानवासी देवोने एकज चोथु गुणगणुं होय, शेष गुणगणां न होय तेथी तेने उधे एटले सामान्ये तथा विशेषे बहोतेर प्रकृतिनोज बंध जाणवो. एम देवगतियें बंधस्वामित्व कह्यु. अहीं सुधी गतिमार्गणाना चार नेदें बंधस्वामित्त्व कडं. हवे इंजियमार्गणायें तथा कायामार्गणायें बंधस्वामित्त्व कहे . त्यां इंजियमार्गणामध्ये एकेंजिय, बेंजिय, तेंजिय, अने चौरिंजिय, ए चार मार्गणा अने काय मार्गणामध्ये पृथवी, थप अने वनस्पतिकाय, ए त्रण मार्गणा, ए बेहु मली सात छारे उघबंध लब्धिअपर्याप्ता, पंचेंप्रिय तिर्यंचनी पेरें एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध होय, केमके ते जीवोने सम्यक्त्व चारित्र नथी तथा ते देवगति अने नरकगतिमाहे न उपजे, तेथी जिननाम, सुरत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियछिक, थाहारकछिक, ए अगीबार प्रकृति विना शेष एकसो ने नव प्रकृति उ तथा मिथ्यात्वे बांधे. पण लब्धि अपर्याप्ता पंचेंजियतिर्यंचने एकज मिथ्यात्वगुणगणुं होय. अने ए सातने तो मिथ्यात्व अने सास्वादन ए बे गुणगणां संजवे, जे माटे ए मध्ये सम्यक्त्व वमतो जीव, अवतरे ते कारणे अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनपणुं संजवे, ए विशेष . ॥ १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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