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________________ पए शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ श विशेष तेनी मुख्यता पामीने जेनो उदय होय, जो पण सर्वप्रकृतिनो उदय अव्य, क्षेत्र, काल अने जावनी सापेक्षतायें होय . पण अहींयां एनीज मुख्यता लेवी. जे नणी जीवने द्विवक्र त्रीवक श्रेणीयें परनव जातां श्रानुपूर्वीने उदयें करी, जेम बलदने नाथ साही फेरवीयें, तेम ानुपूर्वी उदय उत्पत्ति सन्मुख करे. ते नणी खित्तविवागाऽणुपुबीन के क्षेत्रविपाकिनी प्रकृति चारें आनुर्वीने कहीयें. जो पण वक्रगति विना पण संक्रमण करणे देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति अने नरकगति, ए चारमध्ये पोतपोतानी श्रानुपूर्वी संक्रमावी उदय श्राणे डे पण अहींयां केवल थानुपूर्वीना उदयनी मुख्यतानी अपेक्षायें वक्रगतिज लीधी ॥ इति समुच्चयार्थः॥१९॥ हवे सर्व प्रकृति पोतानो विपाक जीवने देखाडे बे. तो पण केटलीएक क्षेत्रमुख्यत्तायें विपाक देखामे, ते देत्रविपाकिनी, नवनी मुख्यतायें विपाक देखाडे, ते नवविपाकिनी, जे बाह्य शरीर पुजलने विषे पोतानो विपाक देखाडे, ते पुजल विपाकिनी जाणवो. ए त्रण निरपेक्ष जे श्रात्माने विषे साक्षात् विपाक देखाडे, ते जीव विपाकीनी प्रकृति जाणवी. ते जीवविपाकिनी प्रकृति, हवे कहे . घण घाई गोअ जिणा, तसिअर तिग सुलग उमग चनसासं॥ जातिग जिअ विवागा, आऊ चनरो नवविवागा ॥२०॥ अर्थ-घण के मेघ ते जेम सूर्यनी प्रजानो घाश् के घात करे, आवरे, तेम जे आत्मानां ज्ञान, दर्शन, श्रमान, चारित्र, दानादिक लब्धि, इत्यादिकने आवरे, ते जणी घनघातिनी प्रकृति कहीये. तेनां नाम कहे . ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, मोहनीयनी अहावीश अने अंतरायनी पांच, ए सुमतालीश प्रकृति, शरीर पुजलादिक निरपेक्ष विपाक जीवने देखामे, माटे ए प्रकृति जीवविपाकिनी कहीये. उगोथ के एक गोत्रहिक अने बीजं वेदनीछिक, ए बे युगल पण पोतानो विपाक जीवने विषे दीपावे, एथी उच्च नीच तथा सुखी पुःखी, जीव कहेवाय, माटें जीव विपाकिनी कहीयें, तथा जिणा के० तीर्थंकर नामकर्मने उदयें एक परमऐश्वर्य पूजातिशय, बीजो वचनातिशय, त्रीजो ज्ञानातिशय आने चोथो अपायापगमातिशय, ए चार अतिशय जीवने होय, जे थकी जीव, तीर्थंकर परमात्मा कहेवाय. ते जणी ए प्रकृति पण जीवविपाकीनी जाणवी. तसिअरतिग के एक त्रस, बीज़ो बादर अने त्रीजो पर्याप्त, ए वसत्रिक श्रने एथी इतर स्थावर, सूक्ष्म अने अपर्याप्त, ए स्थावरत्रिक, एने उदये जीव, त्रस, वादर अने पर्याप्त तथा स्थावर, सूक्ष्म अने अपर्याप्त, पण कहेवाय. एम एना उदयथी जीवनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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