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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
पएर पर्याय फरे, ते नणी एने जीवविपाकीनी प्रकृति कहीये. सुजग के एक सौजाग्य, बीजु सुखर, त्रीजु श्रादेय, अने चोथु यश कीर्ति, ए चार प्रकृतिने उदये जीव सौजागी, सुखरवान्, श्रादेय वचनवालो तथा यशस्वी कहेवाय, ते जणी ए प्रकृति पण जीव विपाकीनी बे, अने उनगचनसासं के एक दोनोग्य, बीजुं कुःस्वर, त्रीजुं अनादेयवचन, चोथु अयशःकीर्ति, एने उदये जीव पुर्जागी, सुःखरवान्, अनादेयवचनवालो तथा यशोहीन मागे कवाय, तेजणी ए प्रकृति पण जीवविपाकिनी जे. अने श्वासोश्वासनामकर्म पण जीवविपाकीनी प्रकृति ने, जो पण ए श्वासोश्वास पुजलरूप , तो पण एनी लब्धि जीवने होय, माटें जीवविपाकी कहेवाय. एवं शडशह प्रकृति थ. ___ जातिग के एकेंजियादिक जाति पांच, देवादिकनी गति चार, अने खगति बे, ए अगीबार प्रकृतिमा जातिनामकर्मने उदये जीव, एकैप्रिय, बेंजिय, तेंजिय, चौरिजिय, अने पंचेंजिय कहेवाय. गतिनामकर्मना उदयश्री जीव देवता, मनुष्य, तीर्यच अने नारकी कवाय. खगतिनामकर्मना उदयथी जीवनी सुचाल कुचाल कहेवा. य, ते जणी ए जीव विपाकीनी प्रकृति जाणवी. एवं अहोत्तेर प्रकृति जीअविवागा के जीव विपाकीनी कही. जो पण सर्वे प्रकृति निश्चेनयत्री जीव विपाकीनीज , जे जणी अजीव घटादिक पदार्थने विषे को प्रकृति पोतानी शक्ति देखामती नथी तोपण व्यवहारनयें चिहुं प्रकारे विपाक विचारतां ए अठोत्तेर प्रकृति जीवविपाकीनी कही.
हवे श्राऊचउरोनवविवागा के देवतादिकनो जव पामीने ते नवना प्रथम समयथी मांमीने चरम समय लगें निरंतरपणे जे कर्मप्रकृति जीवने विषे स्वशक्ति देखावे, आत्माने हेडनी पेरें रोकी राखे, परनवें जावा न दीये अने जेवारे ते प्रकृति खपावें, तेवारें परजवर्नु थायु उदय आवे थके परनवें जीव जाय, एटले बीजी गतिमां जाय, तेमाटें ए आयु ते नवने विषेज उदय आवे , ते कारणे जवनी मुख्यतायें करी देवायु, मनुष्यायु, तियेंचायु अने नरकायु, ए चार प्रकृति नवविपाकीनी कहेवाय. जो पण चारे गति पण नामकर्मपणे पोतपोताने जवें मुख्यवृत्तियें उदय आवेज डे, तथापि ए प्रकृति नव विपाकिनी कहेवाय. कारण के चरमशरीरी जीव पूर्वबह शेष त्रण गतिना दलीकने मनुष्यगतिना एक श्रायुमा संक्रमावी उदयावलीमां श्राणी वेदीने खपावें, जे जणी प्रदेशथी कर्म वेद्या विना बूटे नहीं, अने आयुष्य संक्रमाव्या विना मोदे न जाय तेथी आयु संक्रमाव्या पली तेने कोइ प्रकारे परजवायुनो उदय न होय, खनवनोज उदय होय, तेथी ए चार प्रकृति नव विपाकीनी कहीये. ॥शति समुच्चयार्थः ॥ २०॥
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