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________________ शतकनामा पंचम कमग्रंथ. ५ ԱՆ प्रकृति थ. ते आठ पिंडप्रकृतिमध्ये जे. वेब के वेदत्रिक, ए पण बंध तथा उदयें विरोधी , ते जणी परावर्त्तमान कहीयें. तथा उजुअल के हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए बे युगलमांहे पण एक समय एक युगलनोज बंध तथा उदय एक जीवने होय, तेथी ए पण परावर्त्तमान प्रकृति कहीयें। __कसाय के क्रोध, मान, माया अने लोन, ए चार कषायमध्ये एक जीवने एक समये एकेकनो उदय होय, एटले जेवारें क्रोधनो उदय होय, तेवारें मानादिक त्रणनो उदय न होय, एम ए कषायनी शोल प्रकृति पण उदयविरोधिनी बे. ते जणी परावर्त्तमान जाणवी. उजोश के उद्योतनामकर्म पण श्रातपनामकर्म साथें विरोधी बे. जेने जे समये श्रातपनामकर्मनो बंध तथा उदय होय, तेने उद्योतनामकर्मनो बंध तथा उदय ते समय न होय, तेथी परावर्त्तमान प्रकृति कहीये. गोयग के गोत्रधिक तथा वेदनीयछिक, ए बे ठिक पण बंधोदय विरोधी . शाताने बंधे तथा उदये अशातानो बंध तथा उदय न होय, नीचेर्गोत्रने बंधे तथा उदये उच्चैर्गोत्रनो बंध तथा उदय न होय, तेथी परावर्त्तमान कहीये. निद्दा के पांच निझा पण उदयविरोधिनी बे. जे जणी एक निखाने उदयें शेष चार निशानो उदय न होय, माटें परावर्तमान कहीये. तसवीसाउ के प्रसादिक दश प्रकृति तेनी साथे प्रत्येक अनुक्रमें स्थावरादिक दश प्रकृति बंधे तथा उदयें विरोधिनी डे केमके त्रसने बंधे तथा उदयें स्थावरनो बंध तथा उदय न होय, तेमज बादर साथे सूक्ष्मनुं विरोधिपणुं अने पर्याप्त साथें अपर्याप्तनुं विरोधिपणुं . एमज प्रत्येक साथे साधारणतुं विरोधिपणुं बे. एम सर्वत्र मेल व. माटें ए वीश प्रकृति पण परावर्त्तमान जाणवी तथा श्रायुःकर्मनी चार प्रकृति जे , ते चारे बंधे तथा उदयें विरोधी बे, जे नणी एक समयें एक आयुनो बंध तथा उदय होय तेथी एने पण परित्ता के० परावर्त्तमान कहीये. ए रीतें तनुअष्टकनी तेत्रीश, वेद त्रण, बे युगल, शोल कषाय, उद्योत, आतप, गोत्र बे, वेदनीय , पांच निडा, त्रस विंशति अने चार आयु, एवं एकाणु प्रकृतिमां को बंधे को उदयें, कोइ बिडं गमे परावर्ति एटले फेरफार होय, ते जणी परावर्त्तमान एवं नाम विरोधिनीपणें कहीये. इति परावर्त्तमानाऽपरावर्तमानकारघ्यं संपूर्ण ॥ ए रीते बार छार संपूर्ण वखाएयां. हवे तेरमुं हार विवरे . त्यां जे विपाकना रसोदय तेनां असाधारण कारण अथवा स्थानक, ते चार प्रकारें बे. एक क्षेत्र, बीजो जीव, त्रीजो जव अने चोथो पुजल, तेमध्ये प्रथम क्षेत्रविपाकीनी प्रकृति कहे . तिहां क्षेत्र एटले श्राकाश प्रदे.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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