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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ दसणपणनाणविग्धपरघायं के चकुदर्शनादिक चार दर्शनावरणीय तथा म. तिज्ञानादिक पांच ज्ञानावरणीय, ए नव प्रकृति पण ध्रुवबंधिणी नणी अपरावर्तमान जाणवी. तथा दानांतरायादिक पांच अंतरायनी प्रकृति पण ध्रुवबंधिनी जाणवी तथा पराघात नामकर्म पण ध्रुवबंधी . ए अन्य प्रकृतिनो बंध तथा उदय रंध्या विना पोतानो बंधोदय दीपावे. एनी विजागनी प्रकृति नश्री ते जणी अविरोधिनी बे.
जयकुछ मिठसासं के जयमोहनीय तथा जुगुप्सामोहनीय पण पूर्वली युक्तियें अपरावर्तमान प्रकृति के तथा मिथ्यात्वमोहनीय पण ध्रुवबंधि तथा ध्रुवोदयीपणे जणी बंध उदयें अपरावर्त्तमान होय. अने उश्वासनामकर्म पण बंधे तथा उदयें को प्रकृति साथें विरोधि नथी, तेथी अपरावर्त्तमान. जिणगुणतीसाअपरियत्ता के तीर्थकरनामकर्म पण तेमज बंधे तथा उदये थविरोधिनी , ते जणी अपरावर्त्तमान कहीयें. ए सर्व उंगणत्रीश प्रकृति बंधे तथा जदयें बीजी प्रकृति साथें विरोधिनी नथी, तेथी अपरावर्त्तमान प्रकृति कहीयें. अहींयां को पूजे जे सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीयने उदयें मिथ्यात्वमोहनीयनो उदय न होय, तेथी ए तो उदयविरोधिनी ने तो अपरावर्तमानमांहे केम गणी ? अहींयां उत्तर कहे जे जे, मिथ्यात्वमोहनीयनी बंधोदय नूमि प्रथम गुणगणुं , तिहां सम्यक्त्वमोहनीय श्रने मिश्रमोहनीय नथी. जो ए मिथ्यात्वनी पोतानी नूमिमांहे एनो बंध उदय रंधीने पोतानो बंध उदय देखामत तो विरोधिनी कहेवात, परंतु तेम विरोधिनी नथी माटें अपरावर्त्तमान जाणवी. ए प्रकृतिनो बंध उदय, अनेरी प्रकृ. तिनो बंध, उदय निवारे नही, माटें अपरावर्त्तमान जाणवी. ॥ इति स० ॥ २० ॥
॥ हवे एहथी विपरीत जणी परावर्त्तमान प्रकृति कहेजे. ॥
॥अथ परावर्त्तमानाः प्रकृतयो निरूप्यते ॥ तणु अ वेअ उजुअल, कसाय उद्योअ गोय उगनिदा ॥
तस वीसान परित्ता, खित्तविवागा ऽणुपुवी ॥२॥ अर्थ-जे एकेकी प्रत्येक प्रत्येक प्रकृतिनो बंध तथा उदय कोइएक समय होय, जेम औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, एत्रण शरीरमध्ये एकनोज बंध एकवारें होय. एम उपांग, संघयण, संस्थान, जाति, गति, खगति अने श्रानुपूर्वी मध्ये पण जावQ, तेथी एने परावर्त्तमान प्रकृति कहीयें, ते कहे बे. तणुबह के तनुप्रमुख थानी, उत्तरप्रकृति तेत्रीश जाणवी, तेनां नाम कहे. तनुत्रिक, उपांगत्रिक, संस्थानबक, संघयणबक, जाति पांच, गति चार, खगतिहिक, आनुपूर्वी चार, ए तेत्रीश
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