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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तिनी प्रकृति श्रात्माना शुरू गुणने हणे, प्रतिकूलपणुं करे. तेथी ए पीस्तालीस घातिनी पापप्रकृति तेने आगली सामंत्रीश प्रकृति सहिथ के० सहित करीयें, तेवारें बासी के ब्याशी पावपयमित्ति के पापप्रकृति थाय. एना विपाक जीव प्रतिकूलपणे वेदे, संक्वेशनी वृहियें एना रसनी वृद्धि होय, ते जणी एने पापप्रकृति कहीयें. ए बंधनी अपेदायें लेवी. अन्यथा तो सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय पण सेवाय, परंतु ते एटला माटें न लीधी के, तेनो बंध नथी. अहीं शिष्य प्रश्न करे ने के, हे नगवन् ! आठ कर्मनी मली बंधापेक्षायें, एकसो ने वीश प्रकृति कही बे, अने यहींयां तो पुण्यप्रकृति बैंतालीश तथा पापप्रकृति ब्याशी. ए बेह मेलवतां एकसो ने चोवीश प्रकृति थाय , ते केम घटे ? अहींयां गुरु उत्तर कहे डे के, हे शिष्य ! एकसो ने विंशोत्तर बंध प्रकृतिमध्ये सामान्यपणे वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, ए चार प्रकृति लेखवी ने अने अहीं तो मूल चार प्रकृतिना शुनाशुन विनाग करतां श्वेतादिक शुन अगीआर पुण्यप्रकृतिमाहे गणी ने अने नीलादिक अशुन नव पापप्रकृतिमाहे गणी जे. एम दोसुवि के० बन्ने स्थानकें वसागहासुहाअसुहा के वर्णादिक चार प्रकृतिने विशेषे शुज अने अशुनपणे जूदी जूदी ग्रहण करी तेमाटें एकसो चोवीश थायले अने सामान्य शुन्नाशुन्नने एक ठामे गणतां एकसो ने वीश बंधप्रकृति थाय. अहीं कांश दोष नथी. एम पुण्यप्रकृति तथा पापप्रकृतिनां छार कह्यां ॥ इति पुण्यपापछार ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १७ ॥
एम पुण्य अने पापने परिणामें करी बंधनुं विरुद्धपणुं होय तेमाटें पुण्यप्रकृति तथा पापप्रकृति कहीने हवे बंधे तथा उदयें विरोधिनी प्रकृति कहे . तेमध्ये पण सूची कटाह न्यायें अल्प संख्यांक प्रकृति नणी प्रथम अपरावर्त्तमान प्रकृतिनुं हार कहेडे. ॥ अथाऽपरावर्त्तमानाः प्रकृतयः॥ हवे अपरावर्त्तमान प्रकृतियो कहे. ॥
नाम धुव बंधि नवगं, दंसण पण नाण विग्घ परघायं ॥
जय कुब मिब सासं, जिणगुण तीसा अपरियत्ता ॥ १७ ॥ - अर्थ-एक वर्ण, बीजो गंध, त्रीजो रस, चोथो स्पर्श, पांचमो तैजस, बहो कामण, सातमो निर्माण, श्राठमो उपघात, नवमो अगुरुलघु, ए नामधुवबंधिनवगं के० नामध्रुवबंधिनुं नवक, ए नामध्रुवबंधिनी नव प्रकृति सर्वथा बंधाय. एना बंधने स्थानकें को शुत्ताशुन परिणाम विशेषं बीजी प्रकृति बंधाय नहीं. केवल एना रस. बंधमांहे नावनी मंदता करे, ते जणी अपरावर्त्तमान कही.
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