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________________ ५२२ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ उपयोग न होय, तथा ए गुणगणे रहेला जीव, मिथ्यात्वी न होय, माटें एने त्रण श्रज्ञान पण न होय. एवी रीतें उ उपयोग न होय. ते मीसिमीस के तेज त्रण अज्ञान साथें मिश्र थएखा एवा त्रण ज्ञान तथा तेमज त्रण दर्शन, एवं उ उपयोग मिश्रगुणगणे लाने. केम के जेने सम्यक्त्वांश बहुल होय तेने झानांशबाहुल्य होय, अने जेने मिथ्यात्वांश बहुल होय तेने अझानबाहुख्य होय. अहींबा मिश्रगुणगणे जे अवधिदर्शन कडं ते सिद्धांतने अभिप्रायें जाणवू, पण कार्मग्रंथिकना अनिप्रायें न जाणवू. समणा के ते पूर्वोक्त उ उपयोगने मनःपर्यवज्ञान सहित करीयें. एटले चार झान अने त्रण दर्शन, एवं सात उपयोग जया के प्रमत्तादिक एटले प्रमत्तगुणगणाथी मांमीने बारमा क्षीणमोहगुणगणा सुधीनां सात गुणगणे वर्त्तत्ता जीव, सर्व विरति होय तेथी एने मनःपर्यवज्ञान पण लाने, माटें सात उपयोग होय अने अंतगे के सयोगी ने अयोगी, ए अंतना बे गुणगणे केवल के० केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए बे उपयोग होय, शेष दश उपयोगी गद्मस्थिक ते इहां न होय. ॥इति समुच्चयार्थः॥५१॥ हवे सूत्रसम्मतपणे केटलाएक बोल थहींयां कर्मग्रंथें नयी मान्या, ते देखाडे . सासण नावे नाणं, विनब गाहारगे उरल मिस्सं ॥ नेगिदिसु सासाणो, नेहादि गयं सुअ मयंपि ॥ ५ ॥ अर्थ-सासणजावेनाणं के सास्व दननावे सास्वादनगुणगणे सास्वादनसम्यकदृष्टि जणी सिद्धांतमाहे मति अने श्रुतज्ञानी पण कह्या . एटले बेंजियादिक विकलेंजियमां उपजता जीव सास्वादनपणे ज्ञानी कह्या . तेज कर्मग्रंथानिप्रायें ज्ञान नथी कडं. तेनो ए अनिप्राय जे सास्वादनपणुं सम्यक्त्वथी पडतां होय , ते मिथ्यात्वने सन्मुख ने माटें मलीनसम्यक्त्व ले. तेथी त्यां ज्ञान पण मलीन डे माटें अज्ञानज कह्यु. तथा पन्नवणा अने जगवती प्रमुख सूत्रने विषे विजव्वगाहारगे के वैक्रिय अने आहारकशरीरवालाने एटले लब्धिप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर अने थाहारकशरीरने प्रथम प्रारंजकालें उरलमिस्सं के वै क्रियपुजल औदारिक साथें मिश्रनाव माटें औदारिक साथें मिश्र होय, तेथी ते योगनुं नाम औदारिकमिश्र श्रीसिझांतने विषे कडं बे. ते कर्मग्रंथें अंगीकार न कह्यु, अने कर्मग्रंथने अभिप्रायें तो लब्धिजन्य शरीरने मुख्यताजणी वैक्रिय वैक्रिय मिश्र का, तथा श्राहारक आहारकमिश्र कह्यु पण औदारिकमिश्र न कह्यु, तेनो हेतु श्राम डे के जे गुणप्रत्ययिक लब्धिने बलव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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