SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५२१ अर्थ-ए पूर्वोक्त श्रीधर योगने साहारडुग के० आहारक अने आहारक मिश्र योग सहित करीयें, तेवारें पमत्ते के० प्रमत्तसंयतनामे बडे गुणगणे होय, केम के आहारकना बे ने वैक्रियना वे, एवं चार योग लब्धिप्रत्ययें होय. तिहां लब्धि प्रयुंजतां प्रमत्त होय, तेजणी. ते विजवाहारमीसविणु के० तेहीज तेर योगमा थी एक हारक मिश्र अने बीजो वैक्रियमिश्र, ए वे योग अप्रमत्तगुणठाणे न होय. जे जणी ए वे योग वैक्रिय तथा आहारक प्रारंभतां होय, तिहां तो लब्धि प्रयुंजे तेवा प्रमत्तें होय, पण श्रप्रमत्तें लब्धिनुं प्रयुंजवुं नथी तेथी प्रमत्तें होय, पण एबेहु शरीर बतां श्रप्रमत्तपणं श्रावे ते अपेक्षायें वैक्रिय अने आहारक ए बे योग का, छाने एना मिश्र न होय. माटें ए बे विना अरे के० प्रमत्तयी इत्तर जे प्रमत्त गुणाएं तेने विषे अगीयर योग होय, कम्मुरलडुग के० एक कार्मण बीजो दारीक मिश्र, ए द्विक तथा ताइममणवयण के अंतादिम एटले धुरला अने बेला ए बे मन योग अने एज बे वचनयोग, एटले सत्यमनोयोग अने असत्यामृषामनोयोग, वली एज बे वचनना योग, एवं सात योग, सजोगि के० सयोगिनामा तेरमे गुणठाणे होय. तिहां मनोयोग अनुत्तर विमानना देवता जेवारें संदेह प्रश्न पूबे, तेवारें उत्तर यापवा निमित्तें तेहीज रूपें मनोद्रव्य परिणमावे तिदां मनोयोगनुं कार्य पडे श्रने वचन योग धर्मदेशना कार्य कालें होय, अने श्रौदारिकमिश्र तथा कार्मण ए वे योग केवलसमुद्घातमांदे होय ने श्रदारिकयोग मूल होय. जोग के योगी गुणठाणे चपलता टली ते माटें एके योग न होय. ॥ ५० ॥ हवे चौद गुणठाणे बार उपयोग विवरे ढे, जे जणी गुणस्थानक विशुद्धे वर्त्ततो जीव, विशुद्धयोगें करी उपयोग शुद्धि पामे. ते जणी योग कह्या पढी उपयोग कहे बे. ॥ अथ गुणठाणेषूपयोगाना || ति नाडु दंसाइम, डुगे अजय देसि नाण दंस तिगं ॥ मसि मीस समा, जयाइ केवल 5 अंत डुगे ॥ ५१ ॥ अर्थ - तिना के श्रज्ञान अने डुडुंस के० चतुदर्शन ने अचतुदर्शन, ए बे दर्शन. एवं पांच उपयोग, इमडुगे के० श्रादिम बे गुणठाणे होय, एटले मिथ्यात्व अने सास्वादन ए वे गुणठाणे पूर्वोक्त पांच उपयाग होय, अने अजय के० श्रविरतिनामे चोथे गुण तथा देसि के० देश विरतिनामें पाचमें गुणठाणे नागदंसतिगं के० मति, श्रुत ने अवधि, एत्रण ज्ञान, अने चक्षु, श्रचतु अने अवधि, ए त्रण दर्शन, एवं ब उपयोग होय. देशविर तिमां मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान ने केवलदर्शन, ए त्रण ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy