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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
बे. जे जणी ग्रहण धारण योग्य जे पुल बे ते पुल, द्रव्यने अनंतमे जागे बे मां पण सर्वनुं दान, लाज, जोग ने उपभोगादिक करी न शके, केम के कर्म नोकर्मादिक तथा श्राहारादिकनुं दान, लाज, जोगादिक सर्व जीवने दोय तेथी देशघातिनी कही. सर्व जीवने एनो क्षयोपशम होयज. तथा वीर्यांतरायनो पण जो सर्वघाती रस होय तो जीवनुं सर्व वीर्य आवरे थके जीव काष्टनी पेरें निश्चेष्टावंत थाय, तेथी आहारादिकने यही परिणामावी पण न शंके; ते जणी ए प्रकृति पण देशघातिनी जाणवी, तेथी सर्व जीवने वीर्यांतराय दयोपशम तारतम्यें, वीर्यतारताम्य होयज बे. केवली जगवानने वीर्यांतरायनो दय होय तेथी तेने अनंत वीर्य होय. एम पच्चीश प्रकृति देशघातिनी कही.
ने जो उदयापेक्षायें लेखवीयें तो मिश्रमोहनीय श्रने सम्यक्त्वमोहनीय, ए बे प्रकृति पण देशघातिनी गणतां सत्तावीस प्रकृति थाय. तेनी साथै पूर्वोक्त सर्वधातिनी वीश प्रकृति मेलवीयें तेवारें सुडतालीश प्रकृति घातिनी थाय. तेथी शेष रही जे पंच्चोत्तेर प्रकृति ते अधार के० घातिनी कही बे. जे प्रकृति जीवना ज्ञानादिक गुणने तो कां पण हणे नहीं तथापि जेम चोरनी संगत करतां साधु पण चोर कवाय, तेम ए प्रकृति पण घातिनी प्रकृति साथै वेदतां घातिनी कहेवाय, ते घातीनी प्रकृतिनां नाम कहे बे.
पता के० एक पराघात, बीजी उश्वास, त्रीजी यातप, चोथी उद्योत, पांचमी गुरुलघु, बही जिननाम, सातमी निर्माण, अने श्रावमी उपघात, ए प्रत्येक प्रकृति घातिनी जाणवी. ए प्रकृति कोइ आत्माना गुणने न हणे. तनुष्टक एटले " तवंगा गि” ए गाथाने अनुक्रमें एक औदारिक, बीजुं वैक्रिय, त्रीजुं श्राहारक, एत्रण शरीर तथा ए त्रण शरीरना त्रण उपांग तथा एनी साथै कार्मण ने तेजस मेलवीयें, तेवारें तनुष्यष्टक थाय, तथा व संस्थान, ब संघयण, जाति पांच, गति चा, खगतिद्विक, ध्यानुपूर्वी चार एवं पांत्रीश प्रकृति लेवी तथा आज के० आयुनी चार प्रकृति, एवं उगणचालीश ने आठ पूर्वे प्रत्येक प्रकृति कही बे, एवं सुडतालीस घातिनी थइ.
तथा तसवीसा के० त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, शुजग, सुस्वर, श्रादेय, यशः कीर्ति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अथिर, अशुन, दुर्जग, दुःस्वर, नादेय, यश, ए वीश प्रकृतिने त्रसविंशति प्रकृति कहीयें. गोडुग के० गोत्र वेदनीयद्विक, ए उजय द्विकनी चार प्रकृति तथा वसा के० वर्ष, गंध, रस छाने स्पर्श, एवं सर्व मली पंच्चोत्तेर प्रकृति, अघातिनी कही; एटले घातिघाति द्वार संपूर्ण युं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १४ ॥
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