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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. य થાય ॥ हवे एनी विपरीत अध्रुवोदयी प्रकृति कहे.॥ थिर सुन्न अर विणु अधुव, बंधी मिड विणु मोह धुवबंधी॥ निदोव घाय मीसं, सम्म पण नवश् अधुवुदया॥ ७॥ अर्थ-थिर के स्थिरनामकर्म, सुन के शुजनामकर्म, इअर के० एथी इतर ते अस्थिरनामकर्म अने अशुजनामकर्म, विणु के० ए चार प्रकृतिविना शेष शरीर त्रण, उपांग त्रण, संस्थानबक, संघयणबक, जाति पांच, गति चार. एवं सत्तावीश तथा खगतिहिक, श्रानुपूर्वीचतुष्क. एवं तेत्रीश प्रकृति तथा जिननाम, उवास, उद्योत, आतप, पराघात, त्रसचतुष्क, शुनगचतुष्क, एवं बैंतालीश. स्थावरचतुष्क, दौर्जाग्यचतुष्क, गोत्रधिक, वेदनीयछिक, हास्य श्रने रति तथा शोक अने अरति, त्रण वेद श्रने आयुश्चतुष्क. ए उंगणोतेर प्रकृति बंधविरोधिनी जणी अधुवबंधि के अध्रुवबंधिनी कहीये. एने जेम अध्रुवबंधीनी कही, तेम उदयविरोधिनी जणी कोश्क श्रध्रुवोदयी पण जाणवी, केम के जिननामथी पराघातपर्यं तिनी पांच प्रकृति ने तेनो उदय कोइएक जीवने होय ते जणी अध्रुवोदयी कहीये. जो पण ए थविरोधिनी ने तो पण ए वात विचारीने अविरोधिनी न कवी. तथा शोल कषाय, सत्तरमुंजय, अढारमी जुगुप्ता, ए श्रढार मोहनीयनीप्रकृति , ते ध्रुवबंधिनी प्रकृतिमध्ये गणवी, केमके ए मध्ये क्रोधादिकने उदयें मानादिकनो उदय न होय, तेथी ए उदय विरोधी ने पण बंधविरोधी नथी, तेणे करी बंधमां तो ध्रुवबं. धिनी कही पण उदयमा अध्रुवोदयी कहीये. तथालय अने जुगुप्सानो उदय सांतर बे, केमके कोने को वारें होय, कोश्ने को वारें न होय ते जणी ए पण अध्रु. वोदयी कही. तथा मिविणुमोहधुवबंधी के० मिथ्यात्व ध्रुवबंधी उतुं पण ध्रुवोद. यीमध्ये गएयु, तेथी ते वज्यु. शेष अढार प्रकृति, अध्रुवोदयी जाणवी. एम सत्याशी प्रकृति श्रध्रुवोदयी जाणवी. निहोवधायमीशं के० तथा दर्शनावरणीय कर्ममध्ये पाँच निसानो उदय, केवारेंक होय अने केवारेंक न होय. तथा ए पांच निजा पण परस्परें उदयविरोधिनी बे. ते जणी एने पण अध्रवोदयी कहीयें, तथा उपघातनामनो पण कोइएक जीवने कोइएक वारें उदय होय तेथी अध्रुवोदयी कहीयें, तथा मिश्रमोहनीयन उदय पण विरोधी . जे जणी मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वमोहनीयने उदयें एनो उदय न होय, तेम वली सम्म के० सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय पण वेदक सम्यक्दृष्टिने होय, ते नणी अध्रुवबंधिनी कहीये. एम ए जघन्य तो अंतर मुहर्त अने उत्कृष्टथी तो बाश सागरोपम उपर त्रण पूर्वकोडी अधिक लगें होय पण तेथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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