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खघुक्षेत्रसमासप्रकरण. धर्मना मार्गनेविषे प्रवर्ते, बीजाने प्रवर्तीवे, तेने गुरु कहीएं. अने सुय के सिझांत जे तीर्थंकरनां वचन प्रमाणे प्रकाश्यां, ते प्रकाशना करनार गणधर चनद पूर्वधर एटसे श्रुतकेवली अने दशपूर्वधर तेमना करेलां ते सिद्धांत कहीएं. श्रुतदेवी ते सरस्वती, सिद्धांत प्रमुख सर्व शास्त्रनी जे अधिष्ठायिका तेने सरस्वती कहिए. तथा बीजा पू.
चार्य जे महंत जिनजागणी क्षमाश्रमण, मलय गिरि, वज्रसेन, हेमतिलकसूरि प्रमुख गुरु तेमनो जे प्रसाद तेणे करी ए मनुष्यादिक जीवोना क्षेत्रनो विचार में लेशमात्र लख्यो . ॥ २६१ ॥
सेसाण दीवाण तदोदहीणं ॥ वियारविचारमणोरपारं ॥ स
या सुयाउँ परिनावयंतु ॥ सर्वपि सवन्नुयश्कचित्ता ॥२६॥ अर्थ- शेष बीजा असंख्याता दीवाण के छीपनो तह के० तथा उदहीणं के समुनो वियार के० विचार तेनो जे वीबार के विस्तार ते प्रत्ये सया के सदासर्वदा सुया के सिद्धांत थकी सवन्नु के सर्वज्ञ जे तीर्थंकर देव तेना धर्म वचनने विषे कचित्ता के एक अद्वितीय चित्त जेमतुं ले एहवा थका सवंपि के समस्त विचारने परिजावयंतु के० जाणो, पण ए बीपसमुज्नो विचार केवो ने ? तो के-अणोरपारं के अनंत अपार बे. तो तीर्थकरना धर्मनेविषे एकचित्तपणा थकी अनुक्रमे केवल ज्ञान पामीने ए सर्व छीप समुज्नो विचार जाणवो, ए परमार्थ ॥ २६॥ सूरीदि जं रयणसेदर नाम एहिं ॥ अप्परमेव रश्यं नरखित्तविरकं ॥ तं सोहियं पयरणं सुयणाहि खोए ॥ पावेजतं कुसलरंगमयप्पसिहि॥२६३॥
॥ श्यखित्तसमासपकणस्सबछोअहिगारोसम्मत्तो ॥ अर्थ- श्रीरत्नशेखर नामे जे सूरि के प्राचार्य तेणे अप्परमेव के श्रात्माने अर्थे एहिंनर खित्तविरकं के० ए नरक्षेत्रनुं वखाण ते रश्यं के रच्यु. ते केवु डे ? ता के-सुयणा के० सुजन जे राग द्वेष रहित एवा उत्तम जीव तेणे सम्यक् प्रकारे एक चित्तपणे सोहियं के सोध्यु, निषित कीधुं , एबुं जे था पयरणं के क्षेत्रसमासप्रकरण ते कुशल, आरोग्य, रंग, आनंद प्रमुख घणा नला पदार्थ डे जेने विषे एवं. ए शास्त्र लोकने विषे पसिद्धी के० विस्तार प्रत्ये पावेतं के पामो. ए ग्रंथनो बाशिर्वाद मंगल स्वरूपे कह्यो बे. ॥३६३॥
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