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________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. जए केक कूट बे, अने चलि के चोथा सहस्रनेविषे के० श्राव श्राप कूट ले. ते श्राप कूट दिशाकुमरीनां कह्यां., नहींकां त्यां नवमुं सिझकूट पण बे. तथा विदिसि के० विदिशिने विषे जे चऊ के० चार कूट , ते सहस्रांक जाणवा. ते एक हजार योजन मूल विस्तार तथा एक हजार योजन ऊंचा अने पांचसे योजन शिखरविस्तार एवां कूट . श्यचत्ता के० ए सर्व मली चालीश कूटनेविषे रुचकवासीनी दिसिकुमरी के दिशिने विषे जे कुमरी वसे ले ते दिशिकुमरीनां नाम लखीएं बैएं. नंदोत्तरा, नंदा, सुनंदा, नंदवर्कनी, विजया, वैजयंती, जयंती,अपराजिता, ए आठ कुमरी पूर्व रुचकने विषे वसे बे. समाचारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुझा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्रगुप्ता, वसुंधरा, ए आठ दक्षिण रुचकने विषे वसे . इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एकनाशा, अनवमिका, जमा, अशोका, ए श्राप पश्चिम रुचके वसे . अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुंडरीका, वारुणी, हासा, सर्वप्रना, श्री, ही, ए आठ उत्तर रुचके वसे . चित्रा, चित्रनाशा, तेजा, सुदामिनी, ए चार विदिशिना रुचके वसे . रूपा, रूपांतिका, सुरूपा, रूपवती, ए चार मध्य रुचके वसे डे. ए संख्या एकत्र गणतां चालीश थाय, अने प्रथम सोल वखाणी बे, ए सर्व मलीने बप्पन्न दिक्कुमारिका जाणवी, ए सर्व दिशाकुमारी ते श्रीतीर्थकर देवना ज. न्मदिवसनेविषे श्रावीने सूतिकार्य करी पोतपोताने स्थानके जाय.॥ २६० ॥ ॥ हवे ग्रंथनी समाप्ति कहे .॥ श्य कयवयदीवोददि ॥ वियारलेसो मए विमणावि ॥लि दि जिणगणदरगुरु ॥ सुयसुयदेवीपसाएण ॥ २६ ॥ अर्थ-श्य के० था जे पूर्वे कडं ते कयवयदीवोदहि के कोश्क द्वीप समुपना वियार के विचारनुं खेसो के लेश एटले परमाणुमात्र ते विमरणावि के० विगत एटले जेनी बुझिग , एवो मूर्ख थको पण मए के हुँ रत्नशेखर नामा आचार्य तेणे जिण के परम केवलज्ञान तेणे करी विराजमान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, संसारपारंगत, जेणे समस्त अष्टकर्मरूप शत्रु जीत्या बे. जेमने देवोनी कोमाकोमी वंदे . अ. ष्टमहाप्रातिहार्य, बत्रत्रय, चामर युग्म, समवसरण इत्यादिक शोजा जेने विषे डे, ने जे समस्त जीवनी गति आगति तथा सुख दुःख ते ज्ञानने बले जाणे बे. जे चउद राजना सर्व जीवादि पदार्थने करतलामलकनी पेरे देखे बे. तेने जिनराज देव कहिएं. अने गणहरगुरु केजे जिनेश्वरनी आझाना प्रतिपालक एवा शिष्य जे गौतम, सौधर्मादिक तेने गुरु कहीएं, गुरु एटले जे धर्मनी तथा तत्वज्ञाननी वातो कहे, पोते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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