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इंख्यिपराजयशतक. जहाय किंपागफला मणोरमा रसेणवनेणय मुंजमाणा ॥ तेखुट्टए जीविय पच्चमाणा एउवमा कामगुणा विवागे ॥ १४ ॥ सर्वविलविरं गीअं सर्वनविडंबणा॥ सवेानरणानारा सवेकामाउदावदा ॥१५॥ व्याख्या-जहाय के जेम किंपाग के० किंपाकनामक वृदनां फला के फल ते मणोरमा के मनोहर, रसेण के रसेकरी परिपूर्ण, वन्नेन के वर्णेकरी रूमां पण ते मुंजमाणा के० खाधा थकांपने पञ्चमाणा के पच्यां थकां जीविय के जीवितव्यने खुट्टय के खुटाडे. एउवमा के० ए किंपाकनामक वृक्षना फलनीज उपमा, कामगुणाविवागे के कामना गुणनो जे विपाक-तेनेविषे जाणवी. अर्थात् कामगुण विपाक ते देखता मनोहर, रसेकरी परिपूर्ण अने बाह्यरंगेकरी रुडाबे, पण तेऊनो परिणाम महा पुःखदायक ॥१४॥ संसारमा गीअं केजे गीत जे ते सव्वं के० सर्व विलविथ के० विलापतुल्य जाणवां, सव्वं के सर्व, नट्ट के० नाटक ते विडंबणा के० विटंबना जेवा जाणवां, सव्वे के सर्व आजरणा के जे आजरण ते जारा के नाररूप एवा जाणवां, श्रने सव्वे के० सर्व कामा के काम ते उहावदा के पुःखदा जाणवा.१५
देविंद चक्कवहित्तणारजाइं उत्तमा जोगा॥ पत्ता अणंतखुत्तो नय हं तत्तिं गउत्तेहिं ॥ १६ ॥ संसारचकवाले सवेविय पुग्गलामए बहुसो॥
आदारिआय परिणामिआय नयतेसु तित्तोदं॥१७॥ व्याख्या-रे जीव ! देविंद के इंज, चक्कव हित्तणाई के चक्रवर्तित्वादिक, रचाई के राज्य, अने उत्तमनोगाके उत्तम प्रकारना जोग एटले विषयादिसुख, ते तुं श्रपंतखुत्तो के अनंत वार पत्तो के पाम्यो, तोपण तेहिं के तेउए करीने न यहंतत्ति के तृप्तिने पाम्यो नही ॥ १६ ॥ अहो मए के में, संसारचक्कवाले के संसाररूप चक्रवालनेविषे सव्वेविय के सघलाए पुग्गला के पुजलोने घणीवार याहारियाय परिणामिश्राय के श्राहारिया एटखे खाधा ने थाहारपणे परिणमाव्या खरा, पण तेसु के० तेनेविषे तित्तोहं के हुं तृप्ति नय के पाम्यो नही ॥१७॥
उवलेवो दो लोगेसु अनोगी नोवलिप्पई ॥जोगी नमइ संसारे अनोगी विप्पमुच्चई ॥ १७ ॥ अल्लो सुक्कोअ दो बूटा गोलया महि
आमया ॥ दोविआवडिआकूडे जो अल्लो तब लग्गई ॥१॥ व्याख्या-जोगीपुरुषने जोगेसु के जोगनेविषे उबलेवो के लपटावं ते हो के० थाय , श्रने अजोगी के वांछनारहित एवा पुरुषो नोवलिप्पई के न लपेटाय, जोगी जमेर संसारे के श्रा संसारने विषे जोगी होय ते नमे , अजोगीविप्पमुच्चई के०
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