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षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ अर्थ- केवलगं के केवलज्ञान आने केवलदर्शन, ए बे मार्गणाधारें निश्रागं के० एहिज बे उपयोग पामीये. तेथी निज हिक का, जे जणी शेष गनस्थिक जे दश उपयोग बे, ते केवलीने न होय. ___ हवे ते बार उपयोगमाहेथी तिथनाणविणु के त्रण अज्ञान विना शेष नव के० नव उपयोग, खश्वग्रहखाए के दायिक सम्यक्त्व अने यथाख्यातचारित्र, ए वे मार्गणाधारने विषे पामीये. त्यां मतिझान, श्रुतज्ञान, श्रवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, चकुदर्शन, अचकुदर्शन ने शवधिदर्शन, एवं सात उपयोग अगीश्रारमे श्रने बारमे गुणगणे यथाख्यातचारित्र होय ते अपेक्षायें सेवा. अने केवलज्ञान, तथा केवलदर्शन, ए बे उपयोग केवलीनी अपेक्षायें यथाख्यातचारित्र डे माटें लेवा. एवं नव उपयोग होय. विरति जणी अज्ञान त्रण न होय.
दसणनाणतिगंदेसि के एक केवलदर्शन विना त्रण दर्शन अने मति, श्रुत अने अवधि, एत्रण ज्ञान, एवं उपयोग, देशविरतिमार्गणाये पामीये. विरति जणीत्रण - शान न होय. तिहां आणंदादिक श्रावकनी पेरें अवधिछिक संजवे.
मिसि के तेहीज उपयोग मिश्रमार्गणायें पामीयें, पण एटदुं विशेष जे त्रण झान ते अन्नाणमीसंतं के थाने करी मिश्र लेखक्वां. तिहां मतिज्ञान, मति. झानें मिश्र अने श्रुतज्ञान, श्रुतश्रज्ञाने मिश्र, विजंगशवधिज्ञाने मिश्र होय. एमज त्रण दर्शन पण मिश्र लेवां, एवं उपयोग मिश्रमार्गणायें पामीयें ॥ इति समुच्चयार्थः॥३६॥
मण नाण चरक वजा, अणदारे तिन्नि दंस चउनाण ॥
चन नाण संजमो वस, म वेअगे उदि दंसे॥३७॥ अर्थ- मणनाणचकुवजा के मनःपर्यवज्ञान अने चतुदर्शन, ए बे वर्जीने शेष दश उपयोग, अणहारे के अनाहारकमार्गणायें पामीये, जे जणी अणाहारकपणुं विग्रहगतियें तथा केवलसमुद्घातमांहे तथा सिझने होय. तिहां मनःपर्यवज्ञान अने चकुदर्शन ए बे न होय. अहीं त्रण ज्ञान अने त्रण दर्शन सहित तीर्थकरादिक अवतरे, तेमने अंतरालगतें अनाहारकपणुं होय तथा त्रण अज्ञान तो, मिथ्यात्वी विग्रहगतियें उपजे तेने होय, ते अपेक्षायें जाणवा. एटले सिझनां तथा केवलसमुद्घातनां केवलज्ञान अने केवलदर्शन ए बे उपयोग तथा समकेतधारीने अंतरालगतें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अने अवधिज्ञान, ए त्रण उपयोग अने मिथ्यास्वीने मतिश्रज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विनंगज्ञान, एत्रण, एवं उ अने सम्यक्त्व
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