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________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. होय, तेथी देशविरति तथा प्रमत्त गुणगणे एनो उदय लाने, केमके विष्णुकुमारादिकने करतां सांजल्यो बे, तो पण ते उदय स्वाभाविक नहीं, तथा अल्पकाल होय माटे. अथवा बीजे कोइ कारणे अहीं कह्यो नहीं. ते वात, ज्ञानवंत जाणे, तथा देशविरति, सर्वविरति, गुण बतां जीवने दौर्भाग्य, श्रनादेय वचन अने यशः कीर्त्ति, ए त्रmनो उदय न होय. ए सत्तर प्रकृतिनो उदय, चोथा गुणवाणा सुधी लाने, पण यागले न लाने. ए रीतें मोहनीयनी प्रकृति अप्रत्याख्यानी या चार कषाय ाने देवायु, नरकायु, ए वे श्रायुनी प्रकृति, शेष अगीधार नामकर्मनी. एवं सत्तर प्रकृतिनो उदविछेद चोथे गुणगणे जाणवो. शेष सत्याशी प्रकृतिनो उदय, देशविरतिनामें पांचमे गुणठाणे लाने. त्यांनीचैर्गोत्र तो ध्रुवोदय तियंचगतिमांदे होय, तेथी तिर्यंचने देश विर तिनी थपेक्षायें लेवो ने मनुष्यने चोथे गुणठाणे विछेद होय. १ तिर्यंचगति, २ तिर्यंचायु, ३ उद्योतनाम, ४ नीचैर्गोत्र, ए चार प्रकृतिनो उदय स्वामी तिर्यच, तेने देशविर तिथी उपरलां गुणवाणां न होय. नवप्रत्ययें तेने सर्वविरतिनो निषेध कह्यो, जो पण निंदमणीयानो जीव, देको हतो तेथे अनशनने समयें " सवपालाईवायं पच्चरकामी " इत्यादिक उच्चार श्रीज्ञातासूत्रमध्ये को बे, पण ते देशविर तिनें रूपें जावो, जो सर्वविरतिपणुं तिर्यचने होय, तो केवलज्ञान केम निषेधाय ? तथा उद्योतनामकर्मना उदय, जोपण प्रमत्तगुणठाणे वैक्रिय शरीर करतां साधुने होय, तोपण ते लब्धिप्रत्यय जणी विवयुं नहीं. तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चारने उदयें सर्वविरतिपणुं न होय. ॥ १६ ॥ इगसी, पमत्ति आहार जुअल परकेवा ॥ श्रीतिगादारग डुग, बेर्ड व सयरि अपमत्ते ॥ १७ ॥ Jain Education International GOR अर्थ- अछे के० एवं श्रव प्रकृतिनो उदय विछेद थाय, तेवारें शेष इगसी के० एकाशी प्रकृतिनो उदय पमत्ति के० प्रमत्तगुणगणे होय. आहारजुअल परकेचा के० आहारकशरीर अने आहारक अंगोपांग, ए वे प्रकृति उगणाएंशी मांहे प्रक्षेपीयें, तेवारे एकाश। थाय. छाने त्यां थी तिग के० श्री एडीत्रिक आहारगडुगबेजे के० आहारकद्विक, ए पांच प्रकृतिनो उदय विछेद थाय, तेवारें शेष बसयरिापमत्ते के० बद्दोंतेर प्रकृतिनो उदय, सातमे श्रप्रमत्तगुणगणे होय ॥ इत्यर्थः ॥ १७ ॥ तेथी ए व प्रकृतिनो उदयविछेद देशविर तिगुणठाणे होय, एटले मोहनीयनी चार कषायप्रकृति तथा तीर्थगाय एक, नामकर्मनी बे, गोत्रनी एक. एवं आठ प्रकृ - For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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