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कर्मस्तवनामा वितीय कर्मग्रंथ. तिनो उदयविछेद सत्याशीमांथी थाय, तेवारें उंगणाएंशी प्रकृतिनो उदय रह्यो तेमांहे वली थाहारक शरीर अने थाहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो उदय चौद पूर्वधर मुनिने श्रीतीर्थकरनी शछि देखवा निमित्तें, तथा सूमार्थ संदेह टालवा निमित्ते, आहारक शरीर श्रारंजता, लब्धि प्रयुंजतां होय. तेथी ते उगणाएंशी माहे ए प्रकृति नेलतां एकाशी प्रकृतिनो उदय, प्रमत्तगुणगणे लाने; एटले ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चौद, मनुष्यायु एक, नामनी चुम्मालीश, उचैर्गोत्रनी एक, थने अंतरायनी पांच, एवं एकाशीनो उदय डे, ते मांडेथी पांच प्रकृतिनो उदय, थहीं विछेद पामे, जे नणी एक थीणकी, बीजी निसानिमा अने त्रीजी प्रचलाप्रचला, ए त्रण निझा स्थूलप्रमाद तेमाटे अप्रमत्तें न होय. तथा थाहारकशरीर बने थाहारकअंगोपांग, ए बेनो उदय लब्धिप्रत्यय थाहारक शरीर उतां विशुद्धपणे, अप्रमत्तपणे होय, ते अपेदायें थाहारकछिकनो उदय अप्रमत्तगुणगणे पामीये, पण अहीं शा कारणें कह्यो नहीं ? ते जाणवामां श्रावतुं नथी. तथा अल्प जणी विवदयुं नहीं; तथा " स्वकृत टीकामां ए विषे श्राम लखे बे के, आहारकछिक करनारो यति, औत्सुकें करी अवश्य प्रमादवश थाय बे, माटे ए पण अप्रमत्तने विषे उदयनो आश्रय घटे नहीं. ए विषे श्राम पण सांजलवामां श्राव्यु ले के प्रमत्त यतिज आहारकने विकृत करीने पली विशुभ परिणामना वशथी थाहारकवंत थकोज अप्रमत्त गुणगणा प्रत्ये पामे , ते कांश पण स्वल्पकालादि कारणे करी पूर्वाचायें विवयुं नथी." एम त्रण दर्शनावरणीय तथा बे नामकर्मनी मलीने पांच प्रकृतिनो उदय, एकाशीमांहेथी टाले थके शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब. वेदनीय बे, मोहनीय चौद, श्रायुनी एक, नामनी बैंतालीश, उच्चैर्गोत्रनी एक अनेअंतरायनी पांच. एवं बहोंतेर प्रकृतिनो उदय, अप्रमत्तसाधुने सातमे गुणगणे होय. ॥१७॥
सम्मत्तं तिम संघयण, तिअग ने बिसत्तरि अपुवे ॥
दासाइ बक्क अंतो, बसहि अनिअहि वेअतिगं॥१७॥ अर्थ- त्यां सम्मत्त के० सम्यक्त्वमोहनीय, अंतिमसंघयणतिश्रग के बेला त्रण संघयण, ए चार प्रकृतिनो उदय, छेउ के० विछेद होय, तेवारें बिसत्तरित्रपुच्चे के० बहोंतेर प्रकृतिनो उदय, अपूर्वकरणगुणगणे होय, त्यां हासाश्बकअंतो के हास्यादिक उ प्रकृतिना उदयनो अंत एटले विछेद होय, तेवारें उसहिअनियहि के गशठ प्रकृतिनो उदय अनिवृत्तिकरण गुणगणे होय. तेमांथी वेअतिगं के वेदत्रिक ॥श्त्यक्षरार्थः ॥ २० ॥
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