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________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ सत्तास्थानक, तेमांहेथी देवद्विक अथवा नरकद्विक उवेल्ये थके व्याशीनुं सत्तास्थानक तथा व्याशी माथी तेज ने वायुमांदे वैक्रियाष्टक उवेली एंशीनी सत्तावंत को पंचेंद्रियपणुं पामीने देवगतियोग्य बांधे तो देवद्विक ने वैक्रियचतुष्कने बंधें याशीनुं सत्तास्थानक होय, तथा ते पंचेंद्रियमांहे नरकगति प्रायोग्य बांधतो नरकठिक ने वैक्रियचतुष्कने बंधे पण क्याशीनुं सत्तास्थानक होय. ते पछी नरक द्विक तथा वैक्रियचतुष्कने वेले थके एंशीनी सत्ता होय, अथवा देवद्विकाने वैक्रियचतुष्क 096 वेले पण एंशीनी सत्ता होय. ते पठी मनुष्य द्विक उवेले थके होत्तेरनुं सत्तास्थानक होय, ए सात सत्तानां स्थानक रूपक टालीने अनेरा जीवने होय, तेमां नव्यने तथा पूर्वे प्राप्त सम्यक्त्वने ७०-८० - ८६ - ०० - ए चारज सत्तास्थानक होय. हवे पकने सत्तानां स्थानक होय, ते कदेबे. त्र्याणु मध्येंथी नरक द्विक, तिर्यंचद्विक, एकेंद्रिय, बेंद्रिय, तेंद्रिय, चौरिंद्रिय, ए चार जाति तथा स्थावर, श्रातप, द्योत, सूक्ष्म ने साधारण, ए तेर प्रकृतिने दयें एंशीनी सत्ता तथा बाणुमांहेथी ए तेरने क्षयें उगणाएंशीनी सत्ता तथा नेव्याशी मांहेश्री तेरने कये बहोंत्तेरनी सत्ता तथा श्राशीमांथी तेरने दयें पंच्चोतेरनी सत्ता होय. तथा १ मनुष्यगति, २ पंचेंद्रियजाति, ३ त्रस, ४ वादर, ५ पर्याप्त, ६ सुनग, ७ श्रादेय, ० यशःकीर्त्ति, ए तीर्थंकरनामकर्म, ए नव प्रकृतिनुं सत्तास्थानक तथा तेमध्येंथी तीर्थंकरनामकर्म टालीयें, वारें बीजं आठ प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, ए वे सत्तानां स्थानक अयोगी केवलीने बेहले समये होय. ए नामकर्मनां सत्तानां स्थानक कह्यां इत्यर्थः ॥३१ ॥ ॥ हवे संवेधनो अर्थ कहे . ॥ अन्य बारस बारस, बंधोदय संत पयडिवगणाणि ॥ देणाऽसेाय, जब जहा संभवं विभजे ॥ ३२ ॥ अर्थ - नामकर्मनां बंध के बंधस्थानक, अय के० श्राह ने उदय के० उदयस्थानक, बारस के० बार तथा संत के० सत्तानां स्थानक, बारस के० बार बे. पयमिगणाणि के० ए प्रकृतिनां स्थानक ते उद्देणाऽएसेाय के० उघादेशेन एटले सामान्यदेशें जाणवा. जब जहासंजर्व के० जिहां जेटला संजवे, तिहां तेटला विजजे के० विजजेत् एटले वहेंचियें, अमुक बंधस्थानके एटलां उदयस्थानक तथा एटलां सत्तानां स्थानक, एवो संवेध, ते सामान्य देश कहींयें, तथा अमुक गुणठाणे अथवा अमुक जीवस्थानके एटलां बंधस्थानक, वली ते अमुक बंधस्थानकें एटलां उदयस्थानक, एटलां सत्तानां स्थानक, एम परस्परें संवेधनुं विचारखुं तेने विशेषादेश कहीं यें ॥ इति ॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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