SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 655
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तेम साधुना उत्कृष्ट स्थितिबंधथी लइने अपर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रियना उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यंत समयाधिक समयाधिक करतां वचलां संख्यातां स्थितिबंधस्थानक जे दोय, ते सर्व अंतःकोकाकोमी प्रमाण स्थितिबंध कहीयें, एने अंतःकोमाकोडी सागर एवी संज्ञा कहीयें. एम असंख्याता जेद अंतः कोमाकोमी मां होय, तेथी संख्यातगुणा तथा असंख्यात गुणा कदेतां थकां कांइ विघटे नहीं. एम डमरुक मणि न्यायें करी बे. हिणोनयम के तेमज दीनो बंध एटले अंतःकोमा कोमी सागरोपमथी jो बंध मिथ्यात्वीनें पण न होय. तथा सिद्धांतने मतें जेणे ग्रंथिनेद कीधो होय अने ते वली सम्यक्त्व वमीने मिथ्यात्वे जाय तोपण अंतःकोमाकोडी सागरोपमथी स्थितिबंध बोले नहीं, तेथी तेने पूर्वबंधक कहीयें. छाने कर्मग्रंथों मतें ग्रंथिनेद करया पढी पण मिथ्यात्वें सीत्तेर कोडाकोमी सागरोपमनो उत्कृष्टस्थितिबंध करे पण एटलुं विशेष जे ते स्थितिबंध, तीव्ररसें न बांधें, ए जवियरसन्निमि के० जव्य संज्ञी पंचेंद्रियनी अपेक्षायें लेवुं. बीजुं तो एकेंद्रियने मिथ्यात्वगुणठाणे मिथ्यात्वमोहनीयनुं एक सागरोपम, बेंद्रियने पच्चीश सागरोपम, तेंद्रियने पच्चाश सागरोपम, चौरिंडियने सो सागरोपम, अने असंझीया पंचेंद्रियने हजार सागरोपमनी स्थिति बे, एम सास्वादने पण अपर्याप्ता एकेप्रियादिकनो उत्कृष्ट स्थितिबंध सरखो लेवो. ए जव्य, अजव्य, सन्निया पंचेंद्रियने स्थितिबंध कह्यो. ॥ ४८ ॥ ॥ हवे एकेंद्रियादिकने विषे हीनाधिक स्थितिबंधनुं अल्प बहुत्व कहे. ॥ जर बहु बंधो बायर, प प्रसंख गुण सुदुम पहिगो ॥ एसिपका लहू, सुहुमे रप प गुरु ॥ ४५ ॥ अर्थ - ज ० ( १ ) यति एटले साधुनो लहुबंधो के सर्व थकी हीन स्थितिबंध सूक्ष्मसंपय नामा दशमे गुणठाणे वर्त्तता साधुना होय, जे जणी ज्ञानावरणादिक कर्मनो विशुद्धपणे अंतरमुहूर्त्त प्रमाण जघन्य स्थितिबंध चरम समयें होय, तेथी हीणो स्थितिबंध कोइ जीवने नथी. जो पण आगले गुण ठाणे एक समयिकबंध बे, तो पण कषायी जणी तिहां स्थितिबंध विवक्ष्यो नहीं. ( २ ) साधुनो जघन्य स्थितिबंध अंतरमुहूर्त्त प्रमाण अने बादर पर्याप्ता एकैंडियनो जघन्य स्थितिबंध, सागरोपमनो सात एक जाग पल्योपमने असंख्यातमे जागे होय, ते मध्ये तो श्रसंख्याता अंतरमुहूर्त्त थाय, तेथी साधुना जघन्य स्थितिबंधथी बायरपत्रसंखगुण के० बादर एकेंद्रिय पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध पण असंख्यातगुणो जावो. ( ३ ) बादर पर्याप्ता एकेंद्रियथ की सूक्ष्म पर्याप्ता एकेंद्रियनां योगस्थानक मंद बे, Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy