________________
४२०
कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. अथवा एटले पदांतरें दपक एटले तेहीज नवमां सर्व प्रकृतिनो खपावनार थशे एवो जे मनुष्य, चरमशरीरी तेने चोथे, पांचमे, बके, अने सातमे, ए चार गुणगणे दायोपशमिक, अने दायिक ए बेहु सम्यक्त्व बतां तथा मिथ्यात्वादिकें पण चरमशरीरी , ते नणी देवायु, नरकायु ने तिर्यगायु, ए त्रण पोतपोताना चरमजवने विषे लोगवीने खपाव्यां ने तेथी तेने सत्तायें एकसो ने अमतालीशमांथी त्रण काहाढतां शेष एकसो पीस्तालीश प्रकृति सत्तायें होय. ए स्वरूप, सत्तानी अपेक्षायें जाणवू, तेथी शतकनामे कर्मग्रंथमध्ये सात प्रकृति खपाव्या पली ए त्रण आयुनी दपणा, संनव सत्तापेक्षायें कही. तेहशुं विरोध न होय जे जणी तिहां खपणा के ए त्रण आयुना बंधयोग्य टाली तेणे जीव करे नहीं. एटले वली ए त्रण आयु बांधे नही, तथा दायिकसम्यदृष्टिने चरम शरीरें चोथा गुणगणेथी मांगीने पांचमे,बले, सातमे, आठमे, ए पांच गुणगणे तथा नवमा गुणगणाना अंतर मुहर्त कालना नव जाग करीयें, तेना प्रथमनाग सुधी एकसो ने आडत्रीश प्रकृतिनी सत्ता होय, ते श्रावी रीतें के चरम शरीरीनणी पूर्वोक्त प्रकारे देवायु, नरकायु, तियेंगायु, एत्रणनी सत्ता टली अने दायिक सम्यक्त्व डे माटे अनंतानुबंधीया कषाय चार तथा मिथ्यात्व, मिश्र ने सम्यक्त्व, ए त्रण मोहनी. एवं सात प्रकृतिनी पण सत्ता टली एटले एकसो ने श्रमतालीशमाहेथी ए दश प्रकृतिनी सत्ता विना शेष एकसो ने आमत्रीश प्रकृतिनी सत्ता नवमा गुणगणाना नव नागमाहेला प्रथम नाग लगे होय. तेवार पड़ी तेर नामकर्मनी अने त्रण दर्शनावरणीयनी, एवं शोल प्रकृतिनी सत्ता विद थाय, ते कहे . ॥२॥
थावर तिरि निरया यव, उग थीण तिगे ग विगल सादारं ॥ . सोल ख ऽविस सयं, बिअंसि बिअ तिअ कसायंतो ॥२॥
अर्थ- थावर के स्थावरकि, तिरि के तिर्यंचटिक, निरय के नरकछिक, आयव के श्रातपछिक, ए चार उंग के छिक अने थीणतिग के थीणजीत्रिक, एग के० एकेंजियजाति, विगल के विकलेंजियत्रिक, साहारं के साधारणनाम, एवं सोलख के शोल प्रकृतिनो दय होय, तेवारें मुविससयं के एकसो बावीश प्रकृतिनी सत्ता, विरंसि के नवमा गुणगणाना बीजे अंशे एटले बीजे नागें होय, तिहां बिअतिकसायंतो के बीजा अने त्रीजा कषायनी चोकडीनो अंत थायः॥ इत्यदरार्थः॥४॥ ___ स्थावरनामकर्म अने सूक्ष्मनाम कर्म. एवं बे प्रकृतिनी सत्ता विशुद्ध परिणामे टले अने तिर्यंचगति तथा तिर्यगानुपूर्वी, ए तिर्यंचछिक टले. नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए नरकट्रिक टले, श्रातपनाम, उद्योतनाम, ए श्रातपछिक. ए बेहु यद्यपि पुण्यप्रकृति डे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org