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________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४१ए चसु के अविरतिसम्यकदृष्टि चार गुणगणा प्रमुखें दायिक सम्यकदृष्टिने सत्तगखयंमि के सात प्रकृति दय गइ ते नणी गचत्तसय के० एकसो एकतालीश प्रकृति सत्तायें होय. अहवा के अथवा पक्षांतरें ए अर्थ, धागली गाथामां लखाशे ॥७॥ ___ ए हवे विशेषे कहे . अहीं पंच संग्रहने मते अनंतानुबंधीया कषाय चारनी विसंयोजना तथा क्षपणा कस्या विना उपशमश्रेणीयें तथा दपकश्रेणीयें था,,नवमुं, दशमु, अने श्रगीधारमुं ए चार गुणगणां स्पर्शे नहीं. विसंयोजना एटले विशेष जे खपाव्यां हतां पण मिथ्यात्वादिक प्रत्ययें वली बंधाय, ते खपणानुं नाम विसंयोजना कहीयें बने बल्या बीजनी पेरें फरी पद्धवे नहीं, ते खपणा कहीयें. बेहुपरि सत्ता न होय. तथा नरकायु, तिर्यगायु बांध्या पली उपशमश्रेणि न करे तेथी ते बे श्रायुनी सत्ता ढुंते थके ए चार गुणगणां न होय, तेथी अनंतानुबंधी कषायनी चोकमी, तथा नरकायु, ने तिर्यंचायु, ए प्रकृतिनी सत्ता विना शेष एकसो ने बेंतालीश प्रकृतिनी सत्ता होय. तथा देवायु बांधे थके उपशमश्रेणि करवानुं संजवे तेथी देवायुनी सत्ता अने मनुष्यायुयें वर्ते तेथी तेनी पण सत्ता हुँते ए चार गुणगणां होय, तथा पूर्वे अगीधारमा गुणगणा सुधी एकसो ने अडतालीशनी सत्ता कही ते संजव, सत्तानी अपेक्षायें जाणवो, जेजणी उपशमश्रेणिना धणी पण तिहांथी पाबा पमी मिथ्यात्वा. दिक प्रत्ययें वली ते प्रकृति बांधशे, ए सत्तानो संजव . योग्यतापणे अपेदायें एकसो ने अमतालीशनी सत्ता कहीयें, शहां कांश विरोध नथी. १ अविरतिसम्यकदृष्टि, २ देशविरति, ३ प्रमत्त, ४ अप्रमत्त, ए चार गुणगणे वर्त्तता दायिक सम्यकदृष्टि जीवने अनंतानुबंधिया चार कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने सम्यक्त्वमोहनीय, ए सात प्रकृति खपावी ते जणी ते सातनी सत्ता टली, तेवारें शेष एकसो ने एकतालीशनी सत्ता होय ए अचरम शरीर दायिक सम्यकदृष्टिनी अपेक्षायें चरम शरीरदायिक सम्यकूदृष्टिनो विशेष. ए अर्थ वली पदांतर बागली गाथामां कहेशे ॥॥ खवगंतु पप्प चनसुवि, पणयालं निरय तिरि सुराज विणा ॥ सत्तगविणु अडतीसं, जा अनिअट्टी पढम नागो ॥ २ ॥ अर्थ- पदांतरे खवगंतुपप्पच सुवि के तथा क्षपक केवली, चरम शरीरीने ए चार गुणगाणे निरयतिरिसुराजविणा के नरकायु, तिर्यंचायु, अने देवायु, ए त्रण बाउखां विना पणयालं के० एकसो पीस्तालीश प्रकृति कही. अने सत्तगविणुअडतीसं के० सप्तक कयें दायिकसम्यकदृष्टिने एकसो ने श्रामत्रीशनी सत्ता जायनिअट्टीपढमजागो के चोथा गुणगणाथी लश्ने यावत् अनिवृत्ति नवमा गुणगणाना प्रथम जाग लगें होय ॥ इत्यदरार्थः॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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