SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८ कर्म स्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ॥ हवे अनुक्रमे उदयउदीरणा प्रकृति विचारीने चौद गुणठाणे सत्ता विचारे बे. ॥ सत्ता कम्माण हिइ, बंधारा ल६ अत्त लाजाणं ॥ संते मयाल सयं, जा नवसमु विजिणु बिच तइए ॥ २६ ॥ अर्थ- सत्ताकम्माणइ के० सत्ता सद्भावकर्मनी स्थिती अवस्थान, बंधारा के बंधन संक्रमणादिककरणें करी ( लद्ध ) लाधुं बे अत्तलाजाणं के० श्रात्मलानकर्मी; पणुं जेणे, एवी संते के० सत्तायें होय. घडयालसयं के० एकसो ने घडतालीश प्रकृ ति ते जानवसमुवि के० यावत् उपशांत मोहनामें श्रीश्रारमुं गुणठाएं बे त्यां सु । जाणवी, परंतु जिवितइए के० जिननाम विना बीजे सास्वादन गुणठाणे तथा त्री जे मिश्र ठाणे एकसो ने समतालीश प्रकृतिनी सत्ता होय. सत्ता एटले कर्मदलनुं जीवसायें संबंधपणुं कर्मस्वरूपें रहेतुं, ज्यांसुधी बाँध्य कर्मनां दल, जीव प्रदेशथी खरे नहीं, तथा अन्यप्रकृतिपणे संक्रमे नहीं, त्यांसुधी तेन सत्ता जाणवी. ते कर्म केवां बे के जेने बांधवे करी तथा संक्रमणे करी ला पाम्यो बे जे खात्मलान मतिज्ञानावरणादि श्रात्मस्वजाव जेणे, एवां कर्म एटले सज तिय उत्तर प्रकृतिमांदे निज स्थितिरसदलनुं परिक्रमावावं. जेम देवगति, मनुष्यगत्या दिकमांदे संक्रमावीने सत्तायें रहेतुं, ते कर्मप्रकृति सत्तायें उधें एकसो ने अकालीशनी विवक्षा करवी. अहीं बंधननाम, शरीरनी पेरें पांच लीधां तेथी एकसो ने ड तालीश उचें तथा मिथ्यात्व अविरति, देश विरति, प्रमत्त, श्रप्रमत्त, निवृत्ति, छानिवृत्ति, सूक्ष्म संपराय, उपशांतमोह लगें उधें एकसो ने श्रमतालीश प्रकृति सत्तायें होय. तीर्थं करनाम कर्मनी सत्ता होय. ते जीव, बीजे, त्रीजे, गुणठाणे न यावे तेमाटे जिननामनी सत्ता, एबेहु गुणठाणे न लाने अने मिथ्यात्व गुणठाणे जिननामनी सत्ता अंत मुहूर्त्त संजवे, जेम कोइएक क्षायोपशमिक सम्यक्रदृष्टि जीव पूर्वे मिध्यात्वप्रत्यये नरका बांधी पी सम्यक्त्व पामी जिननाम बांधी ते मरण समयें सम्यक्त्वर्थ मिथ्यात्वें जाय, पण सास्वादनें न जाय; तेथी मिथ्यात्वे अंतरमुहूर्त्त मात्र जिन नाम सत्तायें होय, पण सास्वादन छाने मिनें न होय, तेथी ए बने गुणठाणे एकसो समताली शनी सत्ता होय ॥ २६ ॥ अपूवाइ चटक्के, अण तिरि निरयान विष्णु विद्यालयं ॥ सम्माइ च सुसत्तग, खयंमि इग चत्तसय मदवा ॥ २७ ॥ अर्थ- वाचके के० पूर्वकरणादिक चार गुणठाणे श्रण के० अनंता श्रीयानी चोकमी, तिरि के० तिर्यंचायु, निरयाउ के० नरकायु, ए व प्रकृति, विणु के विना शेष, विद्यालयं के० एकसो ने बेंतालीश प्रकृतिनी सत्ता होय अने सम्म Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy