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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ मध्यम रसें बंधाय, पण मंद रसें तिहां न बंधाय. ए श्राव पापप्रकृति . ते जणी एनो जघन्य रस विशुद्धियें बंधाय, ते विशुद्धाध्यवसाय तो ग्रंथिन्नेद करतां होय, ते मांहे पण वली चारित्र सहित सम्यक्त्व पडिवजनारनी विशुझि अधिक होय , तेथी तेनेज लीधा; अने सम्यक्त्व लह्या पली तो ए था प्रकृतिनो बंध न होय, ते माटें सम्यक्त्व प्राप्तिथी पूर्वलो समय कह्यो; तथा चारित्रसहित सम्यक्त्व अंगीकार करवाना अधिकारी मनुष्यज होय, तेथी मनुष्यज लीधा पण देवादिक न लीधा. बिय के बीजा अप्रत्याख्यानावरण कषायमोहनीयनी चोकमीना जघन्य रसबंधाधिकारी जे श्रागले समयें संयम पडिवजशे, एवा अविरय के० अविरति गुणस्थानकने चरम समयवर्ति मनुष्य जाणवा. एना बंधकमांहे ए थकी अधिक विशुधिस्थानक बीजु कोइ नथी. अहींयां कोशएक देशविरति संयमने सन्मुख थयेलो जीव पण कहे . तथापि देशविरति संयमने सन्मुखनी विशुफि थकी सर्वविरति संयमने सन्मुखनी विशुकि अधिकी होय, एम बहुश्रुतें विचारवं, तत्व केवलीगम्य. एनो मंद रस, अति विशुछियें बंधाय . __ तथा तियकसाय के त्रीजा कषायनी चोकडी एटले प्रत्याख्यानावरण चार कपायमोहनीयनो मंद रसबंध, संयमने सन्मुख थयेलो जे श्रागडे समय चारित्र अवश्य पामशे, एवो देसे के देशविरति मनुष्य जाणवो, जे जणी एना बंधक मांहे एहिज अत्यंत विशुकि बे; अहीं संयम सन्मुख कह्यो मात्रै तिर्यंच न होय, तथा प्रमत्तादिक गुणगणे प्रत्याख्यानीथानो बंध नथी, ते जणी देशविरति कह्यो तथा अप्रत्याख्यानीयानो बंध अविर तिने होय, ते नणी ते न लीधा; संयमसन्मुख अविरति सम्यक्दृष्टिथी पण संयमसन्मुख देशविरति सम्यक्दृष्टिनी अनंतगुण विशुद्धि होय, ते माटें अप्रत्याख्यानीबाना मंद रसथी प्रत्याख्यानीथानो मंद रस हीन होय. पमत्तो के प्रमत्त गुणस्थानक वर्ति साधु जे आगले समय अप्रमत्त थाशे एवो साधु, प्रमत्त गुणगणाना चरम समय एक घर के बरतिमोहनीय, बीजी सोए के शोकमोहनीय, ए बे प्रकृतिनो जघन्य रस बंधाधिकारी होय,जे जणी ए बे प्रकृतिना बंधक मांहे ए हिज अति विशुद्धि होय. एवी बीजे स्थानकें विशुकि न होय, अप्रमत्तादिकने विषे ए बे प्रतिनो बंध नथी, माटें प्रमत्तज कह्यो. एवं अढार प्रकृति थ. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥ अपमाइ दारग उगं, उनिद्द असुवन्न दासर कुबा ॥ नयमुवघाय मपुवो, अनियही पुरिस संजलणे ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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