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________________ ६६० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ बे. एम बेतालीश पुण्यप्रकृति अने चौद पापप्रकृति मली बपन्न प्रकृतिना उत्कृष्ट रसबंध स्वामी कह्या. चजगमिछाउसेसाणं के ते थकी शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, कषाय शोल, मिथ्यात्वमोहनीय, नोकषाय नव, प्रथम संघयण विना शेष पांच संघयण, प्रथम संस्थान विना शेष पांच संस्थान, अशुनवर्ण चतुष्क, अस्थिर षट्क, उपघात, कुखगति, नीचैर्गोत्र, पांच अंतराय, एवं अडशठ प्रकृतिना उत्कृष्ट रसबंध खामी चार गतिना पंचेंजिय पर्याप्ता मिथ्यादृष्टि जीव जाणवा, ते माहे पण वचला संघयण चार अने वचला संस्थान चार, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, ए बार प्रकृति विना शेष बपन्न प्रकृतिना उत्कृष्ट बंधाध्यवसाय स्थानकमाहे जे अत्यंत मलिन संक्लिष्ट अध्यवसायस्थानक होय, तिहां उत्कृष्ट रसबंध करे, अने हास्य तथा रतिनो उत्कृष्ट रस मध्यम संक्शें बंधाय, जे जणी उत्कृष्ट संक्तशें तो वेदमध्ये नपुंसकवेद श्रने हास्यादिकमध्ये शोक तथा अरति बांधे डे, संस्थान मध्ये हुंगसंस्थान अने संघयणमध्ये देवहुं संघयण, ए उत्कृष्ट रसे बंधाय, तेथी ए बार प्रकृतिनो रसबंध मध्यम संक्शे होय, तेश्री ए बार प्रकृतिना उत्कृष्ट रसबंधाधिकारी मध्यम संक्वेशी चतुर्गतिक जीव जाणवा. एम अमशठ प्रकृतिना उत्कृष्ट रस बंधाधिकारी कह्या, अने बप्पन्न प्रकृतिना पूर्वे कह्या. एवं सर्व मली एकसो ने चोवीश प्रकृति थ. तेना उत्कृष्ट रसबंधाधिकरी कह्या. ते मध्ये बेंतालीश पुण्यप्रकृति अने ब्याशी पापप्रकृति जाणवी तिमा॥ हवे ए एकसो ने चोवीश प्रकृतिना जघन्य रसबंधाधिकारी कहेजे. जे जणी उत्कृष्ट रस तथा जघन्य रस कदेवाथकी वचलां सर्व मध्यम रसस्थानक सुखें जाएयां जाय, ते जणी जघन्य रसबंधना स्वामी कहे . थीण तिगं पण मिळं, मंद रसं संजम्मुदो मिडो ॥ बिय तिय कसाय अविरय, देस पमत्तो पर सोए ॥६॥ अर्थ-थीण तिगं के थीणद्धीत्रिक, अण के अनंतानुबंधीश्रा क्रोधादिक चार, मिळं के मिथ्यात्वमोहनीय, ए श्राप प्रकृतिनो मंदरसं के० मंद एटले अत्यंत जघन्य रसना बंधाधिकारी संजम्मुहो के जे मनुष्य चारित्रने सन्मुख थएलो एटले जे मनुष्य श्रागले समयें संयमसहित सम्यक्त्व पामशे एवो अनिवृत्ति करणना चरम समयवर्ति मिझो के० मिथ्यात्वी मनुष्य जाणवो. जे जणी ए श्राप प्रकृतिना बंधकमांहे एवी विशुकि बीजा स्थानकें न पामियें, जो पण मिथ्यात्वीथी सास्वादनीना अध्यवसाय उज्ज्वल बे. तथापि सास्वादन गुणगणुं तो पमतां होय . ते अपेक्षायें संक्लिष्ट कहीयें, तेणे थीणकीत्रिक अने अनंतानुबंधीया चारनो बंध, साखादने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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